यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 1
ऋषिः - परमेष्ठी वा कुत्स ऋषिः
देवता - रुद्रो देवता
छन्दः - आर्षी गायत्री
स्वरः - षड्जः
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नम॑स्ते रुद्र म॒न्यव॑ऽउ॒तो त॒ऽइष॑वे॒ नमः॑। बा॒हुभ्या॑मु॒त ते॒ नमः॑॥१॥
स्वर सहित पद पाठनमः॑। ते॒। रु॒द्र॒। म॒न्यवे॑। उ॒तोऽइत्यु॒तो। ते॒। इष॑वे। नमः॑। बा॒हु॒भ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। उ॒त। ते॒। नमः॑ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते रुद्र मन्यवऽउतो तऽइषवे नमः । बाहुभ्यामुत ते नमः ॥
स्वर रहित पद पाठ
नमः। ते। रुद्र। मन्यवे। उतोऽइत्युतो। ते। इषवे। नमः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। उत। ते। नमः॥१॥
विषय - मन्यु-इषु-बाहू
पदार्थ -
१. हे (रुद्र) = [रुत् ज्ञानं राति ददाति] ज्ञान देनेवाले और ज्ञान देकर [रुत्-दु:खं द्रावयति] सब दुःखों को दूर करनेवाले प्रभो! (ते मन्यवे) = आपसे दिये जानेवाले ज्ञान के लिए (नमः) = हम नतमस्तक होते हैं। [क] विनीत को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है और [ख] ज्ञान प्राप्त करके ही मनुष्य सब कष्टों से ऊपर उठता है। कष्टमात्र के लिए अविद्या, अज्ञान ही उर्वरा भूमि है। 'अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषाम्' [योगदर्शन] । २. (उत उ) = और अब निश्चय से (ते इषवे) = [इष् प्रेरणे] आपसे दी गई प्रेरणा का (नमः) = हम आदर करते हैं। आपसे वेदज्ञान में दी गई प्रेरणाएँ हमारे लिए कितनी उपयोगी हैं। अथर्व के प्रारम्भ में कहा गया 'वाचस्पति' शब्द 'वाणी व जिह्वा का पति बनना, इन्हें काबू में रखना' हमारे अनन्त कल्याण का कारण बन जाता है। जिह्वा के रस में न फँसकर परिमित भोजन करते हुए हम सब रोगों से ऊपर उठ जाते हैं और इस जिह्वा को वश में करके नपे-तुले परिमित शब्द बोलते हुए हम पारस्परिक कलहों में नहीं फँसते । आपकी एक-एक प्रेरणा हमारा अनन्त उपकार करनेवाली है । ३. (उत) = और (ते बाहुभ्याम्) = [बाह्र प्रयत्ने] आपके इन दोनों प्रयत्नों के लिए हम (नमः) = नतमस्तक होते हैं। आपने हमें 'ऋग्वेद' के द्वारा विज्ञान दिया तो अथर्व के द्वारा ज्ञान । विज्ञान ने हमें अभ्युदय के साधन के योग्य बनाया तो ज्ञान से निःश्रेयस का पथिक । इस प्रकार हमारे जीवनों में आपने 'प्रेय व श्रेय' दोनों का समन्वय कर दिया। प्रकृति से हमने ऐहलौकिक उन्नति का साधन किया तो आत्मतत्त्व से परलोक का। इस प्रकार आपकी कृपा से हमारे जीवन में धर्म का उदय हुआ ('यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः') । धर्म अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों को ही सिद्ध करता है। धर्म के शिखर पर पहुँचनेवाला यह सचमुच 'परमेष्ठी' प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि बनता है।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु से दिये जानेवाले ज्ञान के लिए, उस ज्ञान द्वारा दी जानेवाली प्रेरणाओं, और उन प्रेरणाओं से सिद्ध होनेवाले अभ्युदय व निःश्रेयस के लिए हम नतमस्तक होते हैं।
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