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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 3
    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    ईड्य॒श्चासि॒ वन्द्य॑श्च वाजिन्ना॒शुश्चाऽसि॒ मेध्य॑श्च सप्ते।अ॒ग्निष्ट्वा॑ दे॒वैर्वसु॑भिः स॒जोषाः॑ प्र॒ीतं वह्निं॑ वहतु जा॒तवे॑दाः॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ईड्यः॑। च॒। असि॑। वन्द्यः॑। च॒। वा॒जि॒न्। आ॒शुः। च॒। असि॑। मेध्यः॑। च॒। स॒प्ते॒। अ॒ग्निः। त्वा॒। दे॒वैः। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। स॒जोषा॒ इति॑ स॒ऽजोषाः॑। प्री॒तम्। वह्नि॑म्। व॒ह॒तु॒। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईड्यश्चासि वन्द्यश्च वाजिन्नाशुश्चासि मेध्यश्च सप्ते । अग्निष्ट्वा देवैर्वसुभिः सजोषाः प्रीतँवह्निँवहतु जातवेदाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ईड्यः। च। असि। वन्द्यः। च। वाजिन्। आशुः। च। असि। मेध्यः। च। सप्ते। अग्निः। त्वा। देवैः। वसुभिरिति वसुऽभिः। सजोषा इति सऽजोषाः। प्रीतम्। वह्निम्। वहतु। जातवेदा इति जातऽवेदाः॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 3
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    पदार्थ -
    १. हे बृहदुक्थ! तू देवयानमार्ग को अपनाकर अपने सुन्दर व्यवहार के कारण (ईड्यः च असि) = स्तुति के योग्य है, चारों ओर तेरा यश ही यश है। (वन्द्यः च) = जब लोग तुझे देखते हैं तो उनसे वन्दना के योग्य तू होता है। २. हे (वाजिन्) = शक्तिशाली ! (सप्ते) = ज्ञानपूर्वक कर्मों से प्रभु का परिचरण करनेवाले ! तू (आशुः च असि) = शीघ्रता से कर्मों में व्याप्त होनेवाला है और (मेध्यः च) = [मेध यज्ञ] यज्ञात्मक उत्तम कर्मों को करनेवाला है। ३. (देवैः) = देवताओं के साथ, दिव्यवृत्तिवालों के साथ तथा (वसुभिः) = उत्तम निवासवालों के साथ (सजोषाः) = प्रीतियुक्त वह (अग्निः) पावक प्रभु जो (जातवेदाः) = प्रत्येक पदार्थ को जाननेवाले हैं, वे (प्रीतम्) = सदा प्रसन्न रहनेवाले 'सन्तुष्टो येन केनचित्' तथा (वह्निम्) = अपने कर्त्तव्य का वहन करनेवाले (त्वा) = तुझको सिद्धि तक पहुँचानेवाले हों । २. मन्त्रार्थ से यह सुव्यक्त है कि प्रभु को वे व्यक्ति प्रिय हैं जो [क] देव बनते हैं, [ख] अपने निवास को उत्तम बनाते हैं, जिनके शरीर में रोग नहीं, मन में आधियाँ नहीं तथा मस्तिष्क में ज्ञान की दीप्तियाँ हैं, [ग] जो अपने कर्त्तव्य का वहन करते हैं [वह्नि], परन्तु फल की चिन्ता न करते हुए सदा सन्तुष्ट रहते है [ प्रीतम्] । मन्त्रार्थ में यह बात भी स्पष्ट है कि मनुष्य अपना कर्म करता जाए, सिद्धि तो प्रभु प्राप्त कराते ही हैं [वहतु ] ।

    भावार्थ - भावार्थ- -हम अपने उत्तम कर्मों से ईड्य व वन्द्य बनें। यज्ञात्मक उत्तम कर्मों में लगे रहें। देव, वसु, प्रीत [सन्तुष्ट] व वह्नि [ कर्त्तव्य को करनेवाले] बनकर प्रभु के प्रिय हों।

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