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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 5
    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    ए॒ताऽउ॑ वः सु॒भगा॑ वि॒श्वरू॑पा॒ वि पक्षो॑भिः॒ श्रय॑माणा॒ऽउदातैः॑।ऋ॒ष्वाः स॒तीः क॒वषः॒ शुम्भ॑माना॒ द्वारो॑ दे॒वीः सुप्राय॒णा भ॑वन्तु॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ताः। उँ॒ऽइत्यूँ॑। वः॒। सु॒भगा॒ इति॑ सु॒ऽभगाः॑। वि॒श्वरू॑पा॒ इति॑ वि॒श्वऽरू॑पाः। वि। पक्षो॑भि॒रिति॒ पक्षः॑ऽभिः। श्रय॑माणाः। उत्। आतैः॑। ऋ॒ष्वाः। स॒तीः। क॒वषाः॑। शुम्भ॑मानाः। द्वारः॑। दे॒वीः। सु॒प्रा॒य॒णाः। सु॒प्रा॒य॒ना इति॑ सुऽप्राय॒नाः। भ॒व॒न्तु॒ ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एताऽउ वः सुभगा विश्वरूपा वि पक्षोभिः श्रयमाणाऽउदातैः । ऋष्वाः सतीः कवषः शुम्भमाना द्वारो देवीः सुप्रायणा भवन्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एताः। उँऽइत्यूँ। वः। सुभगा इति सुऽभगाः। विश्वरूपा इति विश्वऽरूपाः। वि। पक्षोभिरिति पक्षःऽभिः। श्रयमाणाः। उत्। आतैः। ऋष्वाः। सतीः। कवषाः। शुम्भमानाः। द्वारः। देवीः। सुप्रायणाः। सुप्रायना इति सुऽप्रायनाः। भवन्तु॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 5
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार जब हमारे हृदय सुरक्षित होते हैं, उनमें विशालता होती है और इस प्रकार जब ये वासनाशून्य बनते हैं तब हमारे सब इन्द्रियद्वार उत्तम होते हैं। प्रभु कहते हैं कि (वः) = तुम्हारे (एताः) = ये (द्वार:) = इन्द्रियद्वार (उ) = निश्चय से (भवन्तु) = हों। कैसे ? [क] (सुभगा:) = उत्तम भगवाले। भग, अर्थात् 'ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री ज्ञान व अनासक्ति' रूप धर्मोंवाले हों। [ख] (विश्वरूपा:) = इस विश्व व संसार का बड़ी सुन्दरता से निरूपण करनेवाले हों। पाँच ज्ञानेन्द्रियों से इस पाञ्चभौतिक संसार का ठीक-ठीक ग्रहण होता ही है। [ग] (उद् आतैः) = उत्कृष्ट गमनों के द्वारा, अर्थात् कर्मेन्द्रियों से सदा उत्तम कर्म को करने के द्वारा (विपक्षोभिः) = ज्ञान, कर्म व उपासनारूप विविध [ पक्ष परिग्रहे] परिग्रहों से (श्रयमाणाः) = आश्रय किये जाते हुए हों। कर्मों से ही ज्ञान व उपासना भी साध्य हैं। [घ] (ऋष्वाः सती:) = उल्लिखित परिग्रहों से महान् बनते हुए ये द्वार (कवष:) = [कुशके, षोऽन्तकर्मणि] प्रभुनामोच्चारण से बुरी भावनाओं का अन्त करनेवाले हों। [ड] बुरी भावनाओं के अन्त से (शुम्भमानाः) = सद्गुणों से सुशोभित होते हुए ये द्वार (देवी:) = दिव्य बनें और [च] (सुप्रायणा:) = उत्तम प्रकृष्ट गमनवाले हों, इनसे कभी कोई अवाञ्छनीय कर्म न हो।

    भावार्थ - भावार्थ- हमारे इन्द्रियद्वार उत्तम प्रकृष्ट गमनवाले हों। प्रभुनामोच्चारण से बुराइयों को नष्ट करनेवाले होकर सुन्दर व दिव्य बनें।

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