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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 47
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - धनुर्वेदाऽध्यापका देवताः छन्दः - विराट् जगती स्वरः - निषादः
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    ब्राह्म॑णासः॒ पित॑रः॒। सोम्या॑सः शि॒वे नो॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॑ने॒हसा॑।पू॒षा नः॑ पातु दुरि॒तादृ॑तावृधो॒ रक्षा॒ माकि॑र्नोऽअ॒घश॑ꣳसऽईशत॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रा॒ह्म॑णासः। पित॑रः। सोम्यासः॑। शि॒वेऽइति॑ शि॒वे। नः॒। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒ने॒हसा॑। पू॒षा। नः॒। पा॒तु॒। दु॒रि॒तादिति॑ दुःऽइ॒तात् ऋ॒ता॒वृ॒धः॒। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑तऽवृधः। रक्ष॑। माकिः॑। न॒। अ॒घश॑ꣳस॒ इत्य॒घऽश॑ꣳसः। ई॒श॒त॒ ॥४७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः शिवे नो द्यावापृथिवीऽअनेहसा । पूषा नः पातु दुरितादृतावृधो रक्षा माकिर्ना अघशँस ईशत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ब्राह्मणासः। पितरः। सोम्यासः। शिवेऽइति शिवे। नः। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। अनेहसा। पूषा। नः। पातु। दुरितादिति दुःऽइतात् ऋतावृधः। ऋतवृध इत्यृतऽवृधः। रक्ष। माकिः। न। अघशꣳस इत्यघऽशꣳसः। ईशत॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 47
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    पदार्थ -
    १. हमारे राष्ट्र के 'सेनानायक कैसे हों', यह विषय गतमन्त्र का था। प्रस्तुत मन्त्र का प्रारम्भिक विषय यह है कि 'हमारे राष्ट्र के आचार्य कैसे हों ?' आचार्य [क] (ब्राह्मणासः) = [ब्रह्मवेत्ता] ब्रह्म के जाननेवाले अर्थात् पराविद्या में भी निपुण हों। ('परा यया तदक्षरमधिगम्यते'), पराविद्या वही है जिससे उस अक्षर, अविनाशी, परमात्मा का ज्ञान होता है। 'पराविद्या में निपुण' कह देने से अपराविद्या का पाण्डित्य तो आ ही जाता है, क्योंकि सामान्यक्रम से अपरा के बाद ही परा का अध्ययन होता है। [ख] ये परा - पराविद्या में निपुण ब्राह्मण (पितरः) = विद्यार्थियों का पालन व रक्षण करनेवाले होते हैं। [ग] (सोम्यासः) = उत्कृष्ट ज्ञानवाले होते हुए ये बड़े सौम्य स्वभाव के शान्तवृत्ति के होते हैं । २. राष्ट्र में ब्राह्मणों के ठीक होने पर आधिदैविक आपत्तियों से राष्ट्र बचा रहता है, अतः कहते हैं कि 'ब्राह्मणों के पितर व सोम्य' होने पर (नः) = हमारे लिए (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक अनेहसा उपद्रव व हिंसाशून्य होते हुए (शिवे) = कल्याणकर हों। पार्थिव व अन्तरिक्ष कोई भी विपत्ति हमपर न आये। ३. द्यावापृथिवी के साथ (पूषा) = यह सबका पोषण करनेवाला सूर्य (नः) = हमें (दुरितात्) = पाप से (परिपातु) = सुरक्षित करे। ४. हे (ऋतावृधः) = सत्य व यज्ञ का रक्षण करनेवाले देवो! आप (रक्ष) = हमारी रक्षा कीजिए। वस्तुतः जब हमारे अन्दर सत्य व यज्ञ का वर्धन होगा तब हमारी रक्षा तो स्वतः हो जाएगी। ५. (अघशंसः) = बुराई का शंसन करनेवाला कोई व्यक्ति (नः) = हमारा (माकि) = मत (ईशत) = शासन करनेवाला हो जाए, अर्थात् हम किन्हीं भी दुष्टों के वश में न हो जाएँ। उनकी बातों में आकर धर्म के मार्ग से विचलित न हों जाएँ।

    भावार्थ - भावार्थ - राष्ट्र के ब्राह्मण 'पितर व सोम्य' हों तो द्युलोक व पृथिवीलोक हमारा कल्याण करनेवाले होंगे। सूर्य भी हमें अशुभावस्था से बचाएगा। सब देव हमारी रक्षा करें। प्रभाव में न आ जाएँ। हम दुर्जनों की बातों के

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