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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 32
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - आर्षी स्वरः - धैवतः
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    दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा सु॒वाचा॒ मिमा॑ना य॒ज्ञं मनु॑षो॒ यज॑ध्यै।प्र॒चो॒दय॑न्ता वि॒दथे॑षु का॒रू प्रा॒चीनं॒ ज्योतिः॑ प्र॒दिशा॑ दि॒शन्ता॑॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्या॑। होता॑रा। प्र॒थ॒मा। सु॒वाचेति॑ सु॒ऽवाचा॑। मिमा॑ना। य॒ज्ञम्। मनु॑षः। यज॑ध्यै। प्र॒चो॒दय॒न्तेति॑ प्रऽचो॒दय॑न्ता। वि॒दथे॑षु। का॒रूऽइति॑ का॒रू। प्रा॒चीन॑म्। ज्योतिः॑। प्र॒दिशेति॑ प्र॒ऽदिशा॑। दि॒शन्ता॑ ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्या होतारा प्रथमा सुवाचा मिमाना यज्ञम्मनुषो यजध्यै । प्रचोदयन्ता विदथेषु कारू प्राचीनञ्ज्योतिः प्रदिशा दिशन्ता ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्या। होतारा। प्रथमा। सुवाचेति सुऽवाचा। मिमाना। यज्ञम्। मनुषः। यजध्यै। प्रचोदयन्तेति प्रऽचोदयन्ता। विदथेषु। कारूऽइति कारू। प्राचीनम्। ज्योतिः। प्रदिशेति प्रऽदिशा। दिशन्ता॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 32
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    पदार्थ -
    १. हमारे प्राणापान (दैव्या होतारा) = उस (देव) = [प्रभु] को प्राप्त करानेवाले होता हैं। (प्रथमा) = ये इस शरीर में रहनेवाले देवों में प्रथम हैं, इनके जाने पर शरीर की दुर्गति ही क्या, समाप्ति ही हो जाती है, अतः प्राण ही वरिष्ठ व श्रेष्ठ हैं। (सुवाचा) = उत्तम वाणीवाले हैं, प्राणशक्ति की क्षीणता से वाणी भी क्षीण होने लगती है और अपान के ठीक कार्य न करने सेतो वाणी समाप्त ही हो जाती है। २. इस (मनुषः) = मननशील पुरुष के (यजधै) = [यष्टुं] प्रभु से मेल कराने के लिए यज्ञम् मिमाना ये प्राणापान यज्ञों का निर्माण करते हैं। प्राणापान की शक्ति से ही सब यज्ञ चलते हैं। ३. ये प्राणापान साधना करनेवाले मनुष्य को (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों में (प्रचोदयन्ता) = प्रकृष्ट प्रेरणा प्राप्त कराते हैं, अर्थात् प्राणापान का साधक ज्ञानाग्नि की दीप्ति के कारण ज्ञान की रुचिवाला होता है। (कारू) = ये प्राणापान प्रत्येक कार्य को कलापूर्ण ढंग से करनेवाले हैं। शरीर में प्राणापान की शक्ति के ठीक होने पर कार्यों में भी सौन्दर्य व कला प्रकट होती है। प्राणापान की दुर्बलता होने पर कार्य में उत्साह नहीं होता और परिणामतः वहाँ अनाड़ीपन व भद्दापन टपकता है । ४. ये प्राणापान (प्रदिशा) = वेदोपदिष्ट मार्ग से (प्राचीनम् ज्योतिः) = उन्नति के साधनभूत अथवा सनातन [शाश्वत] ज्ञान को (दिशन्ता) = उपदिष्ट करते हैं, अर्थात् प्राणापान की साधना से हृदय का वह नैर्मल्य प्राप्त होता है जिससे अन्तःस्थ प्रभु की ज्योति का हममें आभास होता है। यह ज्योति हमारी निरन्तर उन्नति का कारण बनती है, यह प्राचीन है, हमें आगे ले चलनेवाली है।

    भावार्थ - भावार्थ- प्राणापान की साधना हमें प्रभु से मिलाती है, ज्ञान को बढ़ाती है, हमारे आभास कराती है। कार्यों में सौन्दर्य लाती है, सनातन ज्योति का

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