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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 38
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    जी॒मूत॑स्येव भवति॒ प्रती॑कं॒ यद्व॒र्मी याति॑ स॒मदा॑मु॒पस्थे॑।अना॑विद्धया त॒न्वा जय॒ त्वꣳ स त्वा॒ वर्म॑णो महि॒मा पि॑पर्त्तु॥३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जी॒मूत॑स्ये॒वेति॑ जी॒मूत॑स्यऽइव। भ॒व॒ति॒। प्रती॑कम्। यत्। व॒र्मी। याति॑। स॒मदा॒मिति॑ स॒ऽमदा॑म्। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। अना॑विद्धया। त॒न्वा᳖। ज॒य॒। त्वम्। सः। त्वा॒। वर्म॑णः। म॒हि॒मा। पि॒प॒र्तु॒ ॥३८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जीमूतस्येव भवति प्रतीकँयद्वर्मी याति समदामुपस्थे । अनाविद्धया तन्वा जय त्वँ स त्वा वर्मणो महिमा पिपर्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    जीमूतस्येवेति जीमूतस्यऽइव। भवति। प्रतीकम्। यत्। वर्मी। याति। समदामिति सऽमदाम्। उपस्थ इत्युपऽस्थे। अनाविद्धया। तन्वा। जय। त्वम्। सः। त्वा। वर्मणः। महिमा। पिपर्तु॥३८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 38
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रातःकाल जागकर अपने कर्त्तव्यों में लगनेवाला व्यक्ति अपना उचित रक्षण कर पाता है। शक्तिशाली बनकर जहाँ वह रोगों से आक्रान्त नहीं होता, मन में क्रोधादि भावनाओं से भी बचा रहता है, अतः इसका नाम 'भारद्वाज पायु' हो जाता है, अपने में शक्ति भरनेवाले की सन्तान, अपनी रक्षा करनेवाला । यह ज्ञानरूप कवच वहाँ को धारण करके [ब्रह्म वर्म ममान्तरम्, शर्म वर्म ममान्तरम्] कामादि के आक्रमण से विद्ध [घायल] नहीं होता। वासनाओं के साथ संग्राम में यह ज्ञान व प्रसाद [सुख] का कवच इसे बचानेवला होता है। [क] मन्त्र में कहते हैं कि (यत्) = जब (वर्मी) = 'ब्रह्म' कवच को धारण करनेवाला यह व्यक्ति (समदाम्) = संग्रामों के [सह माद्यन्ति योद्धा यत्र] (उपस्थे) = गोद में, अर्थात् संग्राम में याति प्राप्त होता है तब (जीमूतस्य इव) = मेघ की भाँति (प्रतीकम् भवित) = इसका मुख होता है। जिस प्रकार बादल विद्युत् व गर्जनाओं से असह्य होता है उसी प्रकार इस पायु का मुख भी ज्ञानदीप्ति व प्रभु नमोच्चारण से शत्रुओं के लिए असह्य हो जाता है। ३. जैसे योद्धा कवच के कारण अनविद्ध शरीरवाला होता है, उसी प्रकार (अनाविद्धया तन्वा) = काम, क्रोधादि के आक्रमणों से न घायल शरीर से (त्वम्) = तू_(जय) = विजयी हो । (त्वा) = तुझे (वर्मण:) = ब्रह्मरूप कवच का (सः महिमा) = वह प्रसिद्ध महत्त्व (पिपर्त्तु) = कामादि के आक्रमण से बचानेवाला हो। ब्रह्मरूप कवच को धारण किये हुए तुझे कामदेव के अस्त्र विद्ध न कर सकें।

    भावार्थ - भावार्थ-ब्रह्मरूप कवच को धारण करके मनुष्य काम के आक्रमणों से बचा रहे ।

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