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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी बृहती स्वरः - मध्यमः
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    अ॒ग्नेस्त॒नूर॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा॒ सोम॑स्य त॒नूर॑सि॒ विष्ण॑वे॒ त्वा॒ऽति॑थेराति॒थ्यम॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा श्ये॒नाय॑ त्वा सोम॒भृते॒ विष्ण॑वे त्वा॒ऽग्नये॑ त्वा रायस्पोष॒दे विष्ण॑वे त्वा॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नेः। त॒नूः। अ॒सि॒। विष्ण॑वे ॥ त्वा॒ सोम॑स्य। त॒नूः अ॒सि॒। विष्ण॑वे। त्वा॒। अति॑थेः। आ॒ति॒थ्यम्। अ॒सि॒। विष्ण॑वे। त्वा॒। श्येनाय॑। त्वा॒। सो॒म॒भृत॒ इति॑ सोम॒ऽभृते॑। विष्ण॑वे। त्वा॒। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। रा॒य॒स्पो॒ष॒द इति॑ रायस्पोष॒ऽदे। विष्ण॑वे। त्वा॒ ॥१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेस्तनूरसि विष्णवे त्वा सोमस्य तनूरसि विष्णवे त्वातिथेरातिथ्यमसि विष्णवे श्येनाय त्वा सोमभृते विष्णवे त्वाग्नये त्वा रायस्पोषदे विष्णवे त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः। तनूः। असि। विष्णवे॥ त्वा सोमस्य। तनूः असि। विष्णवे। त्वा। अतिथेः। आतिथ्यम्। असि। विष्णवे। त्वा। श्येनाय। त्वा। सोमभृत इति सोमऽभृते। विष्णवे। त्वा। अग्नये। त्वा। रायस्पोषद इति रायस्पोषऽदे। विष्णवे। त्वा॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 1
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    पदार्थ -

    ‘गोतम’ चतुर्थ अध्याय के अन्तिम मन्त्र का ऋषि था। प्रस्तुत अध्याय के प्रारम्भिक १४ मन्त्रों का ऋषि भी यही है। यह प्रभु से कहता है कि १. हे प्रभो! आप ( अग्नेः ) = अग्नि के ( तनूः ) = विस्तार करनेवाले ( असि ) = हैं। मेरे जीवन में ( अग्नि ) = उत्साह का सञ्चार करनेवाले आप ही हैं। इसीलिए ( त्वा विष्णवे ) = तुझ व्यापक प्रभु के लिए मैं अपने को अर्पित करता हूँ। २. ( सोमस्य तनूः असि ) = मुझमें सोमशक्ति का विस्तार करनेवाले आप हैं, अतः ( विष्णवे त्वा ) = तुझ व्यापक प्रभु के लिए मैं अपने को अर्पित करता हूँ। 

    ३. ( अतिथेः ) = आपकी ओर निरन्तर चलनेवाले उपासक के ( आतिथ्यम् असि ) = आप शरीरबद्ध आतिथ्य हैं। आप स्वयं ही उसे प्राप्त हो जाते हैं, अतः ( त्वा विष्णवे ) = तुझ व्यापक प्रभु के लिए मैं अपने को अर्पित करता हूँ। 

    ४. ( श्येनाय त्वा ) = तुझ [ श्यैङ् गतौ ] गतिवाले के लिए, ( त्वा सोमभृते ) = निरन्तर गतिशीलता के द्वारा सोम का भरण करनेवाले तेरे लिए और ( त्वा विष्णवे ) = तुझ व्यापक प्रभु के लिए मैं अपने को अर्पित करता हूँ। 

    ५. ( अग्नये त्वा ) = [ अङ्गिा गतौ ] सबको अग्रगति देनेवाले और इस अग्रगति के साधनरूप में ही ( रायस्पोषदे ) = धन का पोषण प्राप्त करानेवाले ( त्वा विष्णवे ) = तुझ व्यापक परमात्मा के लिए मैं अपने को अर्पित करता हूँ। 

    ६. ऊपर मन्त्रार्थ में यह बात स्पष्ट है कि हृदय में भी व्याप्त उस प्रभु के प्रति आत्मार्पण करने से ही हमारा जीवन [ क ] ( अग्नितत्त्वप्रधान ) = उत्साहमय [ ख ] ( सोम ) = वीर्यशक्ति का विस्तार करनेवाला [ ग ] प्रभु के प्रति निरन्तर चलनेवाला [ घ ] गतिशील [ ङ ] शक्तिमय और अन्त में सांसारिक उन्नति के लिए आवश्यक धन को प्राप्त करनेवाला होगा।

    भावार्थ -

    भावार्थ — प्रभुकृपा से हम उत्साहमय, शक्तिशाली, प्रभुप्रवण, कर्मनिष्ठ व श्रीसम्पन्न हों।

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