यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - विष्णुर्यज्ञो देवता
छन्दः - आर्षी गायत्री
स्वरः - षड्जः, धैवतः
3
अ॒ग्नेर्ज॒नित्र॑मसि॒ वृष॑णौ स्थऽउ॒र्वश्य॑स्या॒युर॑सि पुरू॒रवा॑ऽअसि। गा॒य॒त्रेण॑ त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॒ त्रैष्टु॑भेन त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॒ जाग॑तेन त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॥२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नेः। ज॒नित्र॑म्। अ॒सि॒। वृष॑णौ। स्थः॒। उ॒र्वशी॑। अ॒सि॒। आ॒युः। अ॒सि॒। पु॒रू॒रवाः॑। अ॒सि॒। गा॒य॒त्रेण॑। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒। त्रैष्टु॑भेन। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒। जाग॑तेन। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒ ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेर्जनित्रमसि वृषणौ स्थऽउर्वश्यस्यायुरसि पुरूरवाऽअसि गायत्रेण त्वा छन्दसा मन्थामि त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा मन्थामि जागतेन त्वा छन्दसा मन्थामि ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्नेः। जनित्रम्। असि। वृषणौ। स्थः। उर्वशी। असि। आयुः। असि। पुरूरवाः। असि। गायत्रेण। त्वा। छन्दसा। मन्थामि। त्रैष्टुभेन। त्वा। छन्दसा। मन्थामि। जागतेन। त्वा। छन्दसा। मन्थामि॥२॥
विषय - प्रभु की गोतम को प्रेरणा
पदार्थ -
१. प्रभु आत्मार्पण करनेवाले गोतम को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि ( अग्नेः जनित्रम् असि ) = तू अपने में अग्नि का उत्पन्न करनेवाला है—अर्थात् तेरा जीवन उत्साहमय और अतएव अग्रगतिवाला है।
२. घर में पति-पत्नी तुम दोनों ही ( वृषणौ स्थः ) = शक्तिशाली होओ। पिछले मन्त्र में ‘अग्नेः तनूः असि’ के बाद ‘सोमस्य तनूः असि’ यह क्रम था। प्रस्तुत मन्त्र में भी अग्नि के बाद शक्ति का उल्लेख हुआ है। सोम की रक्षा करके ही ये ( वृषन् ) = शक्तिशाली बनते हैं।
३. हे पत्नि! तू ( उर्वशी असि ) = [ उरुवशी ] अपने पर खूब ही नियन्त्रण रखनेवाली है। ( आयुः असि ) = मन को वश में रखने के लिए ही [ इ = गतौ ] निरन्तर गतिशील है और ( पुरुरवा असि ) = खूब ही प्रभु के गुणों का गान [ रु शब्दे ] करनेवाली है, अथवा [ पॄ पालनपूरणयोः ] उस प्रभु का गुणगान करनेवाली है जो पालन व पूरण करनेवाला है, जिस गुणगान से जीवन में वासनाओं का आक्रमण नहीं होता और न्यूनताओं का सदा दूरीकरण होता रहता है।
४. ( त्वा ) = तुझे ( गायत्रेण छन्दसा ) = गायत्र छन्द से [ गयाः प्राणाः, त्र = रक्षण, छन्द = इच्छा ] प्राणशक्ति के रक्षण की इच्छा से ( मन्थामि ) = आलोडित करता हूँ। तेरा हृदय-सरोवर इस प्राणशक्ति के रक्षण की इच्छा से आलोडित हो उठता है, अर्थात् मैं तेरे हृदय में प्राणशक्ति-रक्षण की प्रबल भावना को पैदा करता हूँ।
५. ( त्वा ) = तुझे ( त्रैष्टुभेन छन्दसा ) = त्रैष्टुभ छन्द से [ त्रि स्तुभ ] काम-क्रोध व लोभ को रोकने की भावना से ( मन्थामि ) = आलोडित करता हूँ। तेरे हृदय में इन तीनों को रोकने की प्रबल भावना को जन्म देता हूँ।
६. ( त्वा ) = तुझे ( जागतेन छन्दसा ) = जागत छन्द से ( मन्थामि ) = आलोडित करता हूँ। तेरे अन्दर जगती के हित की प्रबल भावना को उत्पन्न करता हूँ।
भावार्थ -
भावार्थ — हम अपने को उत्साहमय व शक्तिशाली बनाएँ। प्राणशक्ति की वृद्धि करें, काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठें और लोकहित में प्रवृत्त हों।
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