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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 12
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - वाग्देवता छन्दः - भूरिक् ब्राह्मी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    सि॒ꣳह्यसि॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य॒स्यादित्य॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्यसि ब्रह्म॒वनिः॑ क्षत्र॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्यसि सुप्रजा॒वनी॑ रायस्पोष॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्यस्याव॑ह देवान् यज॑मानाय॒ स्वाहा॑ भू॒तेभ्य॑स्त्वा॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सि॒ꣳही। अ॒सि॒। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। आ॒दित्य॒वनि॒रित्या॑दित्य॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। ब्र॒ह्म॒वनि॒रिति॑ ब्रह्म॒ऽवनिः॑। क्ष॒त्र॒वनि॒रिति॑ क्षत्र॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। सु॒प्र॒जा॒वनि॒रिति॑ सुप्रजा॒ऽवनिः॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनि॒रिति॑ रायस्पोष॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। आ। वह॒। दे॒वान्। यज॑मानाय। स्वाहा॑। भू॒तेभ्यः॑। त्वा॒ ॥१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सिँह्यसि स्वाहा सिँह्यस्यादित्यवनिः स्वाहा सिँह्यसि ब्रह्मवनिः क्षत्रवनिः स्वाहा सिँह्यसि सुप्रजावनी रायस्पोषवनिः स्वाहा सिँह्यस्यावह देवान्यजमानाय स्वाहा । भूतेभ्यस्त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सिꣳही। असि। स्वाहा। सिꣳही। असि। आदित्यवनिरित्यादित्यऽवनिः। स्वाहा। सिꣳही। असि। ब्रह्मवनिरिति ब्रह्मऽवनिः। क्षत्रवनिरिति क्षत्रऽवनिः। स्वाहा। सिꣳही। असि। सुप्रजावनिरिति सुप्रजाऽवनिः। रायस्पोषवनिरिति रायस्पोषऽवनिः। स्वाहा। सिꣳही। असि। आ। वह। देवान्। यजमानाय। स्वाहा। भूतेभ्यः त्वा॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र में वर्णित आचार्यकुल में पढ़ाई जानेवाली वेदवाणी का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ( सिंही असि ) = तू सब दोषों की हिंसा करनेवाली है और ज्ञान से सींचनेवाली है। ( स्वाहा ) = यह बात सचमुच ठीक कही गई है। तू ( सिंही असि ) = दोषों की हिंसा व ज्ञान का सेचन करनेवाली है और इस प्रकार ( आदित्यवनिः ) = प्रकाश का सेवन करानेवाली है। सब सद्गुणों का आदान करानेवाली है [ आदानात् ] ( स्वाहा ) = यह बात ठीक कही गई है। 

    २. हे वेदवाणि! तू ब्रह्मचर्याश्रम में ( सिंही ) = दोषहिंसक ज्ञानसेचक होकर ( ब्रह्मवनिः क्षत्रवनिः ) = ज्ञान का सेवन करानेवाली व बल को देनेवाली ( असि ) = है। ( स्वाहा ) = यह बात ठीक कही गई है। ज्ञान को तो यह देती ही है, व्यसनों से बचाकर शक्ति भी प्राप्त कराती है। 

    ३. अब गृहस्थ में यह वेदवाणी ( सिंही असि ) = दोषहिंसक, ज्ञानसेचक होती हुई ( सुप्रजावनिः ) = उत्तम प्रजा को प्राप्त करानेवाली और ( रायस्पोषवनिः ) = धन का पोषण प्राप्त करानेवाली है। ( स्वाहा ) = यह बात ठीक ही कही गई है। ज्ञान से मनुष्य सद्गृहस्थ बनता है, सुन्दर सन्तान का निर्माण कर पाता है तथा यह ज्ञान उसे धन कमाने की योग्यता भी देता  है।

    ४. अब जीवन के तृतीयाश्रम में इस वेदवाणी से कहते हैं कि तू ( सिंही असि ) =  दोषनाशक, ज्ञानसेचक है। तू ( देवान् ) = त्यागमय, ज्ञानप्रधान जीवन बितानेवाले वनस्थों को ( यजमानाय ) = इस सृष्टि-यज्ञ के प्रवर्तक प्रभु के लिए ( आवह ) = ले-चल। ये वनस्थ लोग वेदवाणी का सदा अध्ययन करते हुए [ स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात् ] प्रभु के समीप पहुँचने का प्रयत्न करें। ( स्वाहा ) = कितनी सुन्दर यह बात है! 

    ५. इस प्रभु के उपासक वनस्थ को अब संन्यासी बनना है और वह कहता है कि हे वेदवाणि! अब मैं ( त्वा ) = तुझे ( भूतेभ्यः ) = सब प्राणियों के हित के लिए उन्हें प्राप्त कराता हूँ। मैं तेरे ही प्रचार में जीवनयापन करता हूँ।

    भावार्थ -

    भावार्थ — वेदज्ञान को प्राप्त करके हम प्रथमाश्रम में विज्ञान व बल का, दूसरे में सुसन्तान व धन का, तीसरे में प्रभु-प्राप्ति व चौथे में लोकहित का साधन करें।

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