यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 34
ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
3
मि॒त्रस्य॑ मा॒ चक्षु॑षेक्षध्व॒मग्न॑यः। सगराः॒ सग॑रा स्थ॒ सग॑रेण॒ नाम्ना॒ रौद्रे॒णानी॑केन पा॒त मा॑ग्नयः पिपृ॒त मा॑ग्नयो गोपा॒यत॑ मा॒ नमो॑ वोऽस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसिष्ट॥३४॥
स्वर सहित पद पाठमित्र॒स्य॑। मा॒। चक्षु॑षा। ईक्ष॒ध्व॒म्। अग्न॑यः। स॒ग॒राः। स्थ॒। सग॑रेण। नाम्ना॑ रौद्रे॑ण। अनी॑केन। पा॒त। मा॒। अ॒ग्न॒यः॒। पि॒पृ॒त। मा॒। अग्न॑यः। गो॒पा॒यत॑ मा॒। नमः॑। वः॒। अ॒स्तु॒। मा। मा॒। हिं॒सि॒ष्ट॒ ॥३४॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्रस्य मा चक्षुषेक्षध्वमग्नयः सगराः सगरा स्थ सगरेण नाम्ना रौद्रेणानीकेन पात माग्नयः पिपृत माग्नयो गोपायत मा नमो वोस्तु मा मा हिँसिष्ट ॥
स्वर रहित पद पाठ
मित्रस्य। मा। चक्षुषा। ईक्षध्वम्। अग्नयः। सगराः। स्थ। सगरेण। नाम्ना रौद्रेण। अनीकेन। पात। मा। अग्नयः। पिपृत। मा। अग्नयः। गोपायत मा। नमः। वः। अस्तु। मा। मा। हिंसिष्ट॥३४॥
विषय - सगर अग्नियाँ [ प्रभुभक्त माता-पिता व आचार्य ]
पदार्थ -
१. गत मन्त्र के अनुसार ‘यदि हम चाहते हैं कि हमारे जीवन मार्गभ्रष्ट न हों’ तो हमारी यही कामना हो कि हमें ‘माता-पिता व आचार्य’ सब उत्तम मिलें। माता ‘दक्षिणाङ्गिन’ है, पिता ‘गार्हपत्य’ और आचार्य ‘आहवनीय’। मनु के शब्दों में ये ही तीन अग्नियाँ उत्तम हैं। ये सब सगराः = [ सह गरेण ] स्तुतिसहित हों—प्रभु का स्तवन करनेवाले हों। मधुच्छन्दा चाहता है कि हे ( सगराः अग्नयः ) = सदा प्रभु-स्तवन के साथ रहनेवाली अग्नियो! ( मा ) = मुझे ( मित्रस्य ) = स्नेह की ( चक्षुषा ) = आँख से ( ईक्षध्वम् ) = देखो। ( सगराः स्थ ) = आप सदा प्रभु-स्तुति के साथ रहनेवाले होओ। प्रभु की ओर झुकाववाले आचार्य निश्चय से हमारे जीवनों को सुन्दर बना पाएँगे। हम सदा इनके प्रिय बने रहें, जिससे वे हमारे जीवनों का ठीक निर्माण कर सकें।
२. ( सगरेण नाम्ना ) = स्तुतियुक्त नम्रता से और ( रौद्रणे अनीकेन ) = [ रुत् र ] उपदेश देनेवाले मुख से ( या ) = [ splendour, brilliance ] तेज से हे ( अग्नयः ) = अग्नियो [ माता-पिता, आचार्यो ]! ( मा पात ) = मेरी रक्षा करो। हे अग्नियो ! ( मा पिपृत ) = मेरा पालन व पूरण करो। ( गोपायत मा ) = मेरा रक्षण करो। मेरे शरीर को रोगों से, मन को वासनाओं से और मस्तिष्क को कुविचारों से बचाओ। मेरा मन स्तुति व नम्रता से पूर्ण हो [ सगरेण नाम्ना ], मेरा मस्तिष्क ज्ञान से भरा हो [ रौद्रेण ] और मेरा शरीर तेजस्वी हो [ अनीकेन ]।
३. हे अग्नियो! ( वः ) = आपके लिए ( नमः अस्तु ) = हमारा मस्तक सदा नत हो। हम सदा ‘माता-पिता आचार्य’ के प्रति नतमस्तक बने रहें। ( मा ) = मुझे ( मा ) = मत ( हिंसिष्ट ) = हिंसित होने दो। इन अग्नियों की कृपा से मेरे शरीर, मन व मस्तिष्क में सदा अग्नित्व = आगे बढ़ने की वृत्ति बनी रहे। मैं सदा शारीरिक, मानस व मस्तिष्क सम्बन्धी उन्नति करनेवाला बनूँ।
भावार्थ -
भावार्थ — मैं प्रभु के उपासक ‘माता-पिता आचार्य’ को प्राप्त करूँ। उनके द्वारा मेरे जीवन में स्तुति, नम्रता, ज्ञान व तेजस्विता का सञ्चार हो। मेरा शरीर, मन व मस्तिष्क सभी उन्नत हों।
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