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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 14
    ऋषिः - दधिक्रावा ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - जगती, स्वरः - निषादः
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    ए॒ष स्य वा॒ज क्षि॑प॒णिं तु॑रण्यति ग्री॒वायां॑ ब॒द्धोऽअ॑पिक॒क्षऽआ॒सनि॑। क्रतुं॑ दधि॒क्राऽअनु॑ स॒ꣳसनि॑ष्यदत् प॒थामङ्का॒स्यन्वा॒पनी॑फण॒त् स्वाहा॑॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः। स्यः। वा॒जी। क्षि॒प॒णिम्। तु॒र॒ण्य॒ति॒। ग्री॒वाया॑म्। ब॒द्धः। अ॒पि॒क॒क्ष इत्य॑पिऽक॒क्षे। आ॒सनि॑। क्रतु॑म्। द॒धि॒क्रा इति॑ दधि॒ऽक्राः। अनु॑। स॒ꣳसनि॑ष्यदत्। स॒ꣳसनि॑स्यद॒दिति॑ स॒म्ऽसनि॑स्यदत्। प॒थाम्। अङ्का॑सि। अनु॑। आ॒पनी॑फण॒दित्या॒ऽपनी॑फणत्। स्वाहा॑ ॥१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष स्य वाजी क्षिपणिन्तुरण्यति ग्रीवायाम्बद्धो अपिकक्षऽआसनि । क्रतुन्दधिक्राऽअनु सँसनिष्यदत्पथामङ्गाँस्यन्वापनीपणत्स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एषः। स्यः। वाजी। क्षिपणिम्। तुरण्यति। ग्रीवायाम्। बद्धः। अपिकक्ष इत्यपिऽकक्षे। आसनि। क्रतुम्। दधिक्रा इति दधिऽक्राः। अनु। सꣳसनिष्यदत्। सꣳसनिस्यददिति सम्ऽसनिस्यदत। पथाम्। अङ्कासि। अनु। आपनीफणदित्याऽपनीफणत्। स्वाहा॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -

    प्रस्तुत मन्त्र में राजा के त्रिविध संयम का और परिणामतः विजय का उल्लेख करते हए कहते हैं— १. ( एषः स्यः ) = यह जो ( वाजी ) = शक्तिशाली राजा ( क्षिपणिम् ) = शत्रुओं को सुदूर प्रक्षेपण की क्रिया को ( तुरण्यति ) = [ त्वरयति ] शीघ्रता से करता है। ‘क्या अन्तःशत्रु और क्या बाह्य शत्रु’ यह उन सभी को अपने से दूर फेंकता है। 

    २. यह राजा ( ग्रीवायाम् ) = ग्रीवा के विषय में ( बद्धः ) = तीव्र नियम में बद्ध होता है, अर्थात् इसका खान-पान बडे़ संयम से चलता है। 

    २. ( कक्षे अपि ) = कमरे में भी यह ( बद्धः ) = बडे़ संयमवाला होता है, अर्थात् इसके सन्तानोत्पादनादि क्रिया में पूर्ण संयम रहता है। 

    ४. ( आसनि ) = यह मुख में भी ( बद्धः ) = संयमवाला होता है। इसका बोलना भी बड़ा नपा-तुला होता है। संक्षेप में इस राजा का खान-पान, सन्तानोत्पादन, बोल-चाल सभी क्रियाओं में संयम दीखता है। 

    ५. ( दधिक्रा ) = [ दधत् क्रामति ] राष्ट्र का धारण करता हुआ गति करनेवाला यह राजा ( क्रतुं अनु ) = संकल्प के अनुसार ( संसनिष्यत् ) = [ स्यन्दू प्रस्रवणे ] विविध क्रियाओं में प्रस्रुत होता है। इसका प्रत्येक कार्य संकल्पपूर्वक [ पूर्वनिर्मित योजना के अनुसार ] होता है, इसीलिए इस राजा का कोई कार्य ऐसा नहीं होता जो धारणात्मक न हो। 

    ६. यह राजा ( पथाम् ) = शास्त्र-निर्दिष्ट मार्गों के ( अङ्कांसि ) =  चिह्नों के ( अनु ) = अनुसार ( आ ) = सर्वथा ( पनीफणत् ) = ख़ूब ही गति करता है, अर्थात् यह शास्त्र-निर्दिष्ट मार्ग से रेखामात्र भी विचलित नहीं होता। पूर्वजों के पदचिह्नों पर ही चलता है। 

    ७. ( स्वाहा ) = इस राजा के लिए ही प्रशंसात्मक शब्द कहे जाते हैं [ सु़+आह ]।

    भावार्थ -

    भावार्थ — १. राजा को शत्रुओं को दूर करने के कार्य में आलस्य नहीं करना। २. त्रिविध संयम का जीवन बिताना है। ३. इसका कोई भी कार्य असंकल्पित व अधारणात्मक नहीं होता। ४. शास्त्र-निर्दिष्ट मार्गों के चिह्नों पर ही यह चलता है।

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