यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 18
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - बृहस्पतिर्देवता
छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप्,
स्वरः - निषादः
5
वाजे॑वाजेऽवत वाजिनो नो॒ धने॑षु विप्राऽअमृताऽऋतज्ञाः। अ॒स्य मध्वः॑ पिबत मा॒दय॑ध्वं तृ॒प्ता या॑त प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑॥१८॥
स्वर सहित पद पाठवाजे॑वाज॒ इति॒ वाजे॑ऽवाजे। अ॒व॒त॒। वा॒जि॒नः। नः॒। धने॑षु। वि॒प्राः॒। अ॒मृ॒ताः॒। ऋ॒त॒ज्ञा॒ इत्यृ॑तऽज्ञाः। अ॒स्य। मध्वः॑। पि॒ब॒त॒। मा॒दय॑ध्वम्। तृ॒प्ताः। या॒त॒। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। दे॒व॒यानै॒रिति॑ देव॒यानैः॑ ॥१८॥
स्वर रहित मन्त्र
वाजेवाजे वत वाजिनो नो धनेषु विप्रा अमृता ऋतज्ञाः । अस्य मध्वः पिबत मादयध्वन्तृप्ता यात पथिभिर्देवयानैः ॥
स्वर रहित पद पाठ
वाजेवाज इति वाजेऽवाजे। अवत। वाजिनः। नः। धनेषु। विप्राः। अमृताः। ऋतज्ञा इत्यृतऽज्ञाः। अस्य। मध्वः। पिबत। मादयध्वम्। तृप्ताः। यात। पथिभिरिति पथिऽभिः। देवयानैरिति देवयानैः॥१८॥
विषय - मधुपान — आर्थिक स्थिति का ठीक करना
पदार्थ -
राजपुरुष क्या करें? १. हे ( वाजिनः ) = शक्तिशाली पुरुषो! ( नः ) = हमें ( वाजेवाजे ) = प्रत्येक संग्राम में ( अवत ) = सुरक्षित करो। संग्राम के समय इस प्रकार की व्यवस्था की जाए कि आम जनता के कार्य अव्यवस्थित न हो जाएँ।
२. ( धनेषु ) = धनों के विषयों में तुम ( विप्राः ) = विशेषरूप से हमारा पूरण करनेवाले होओ। राजा व्यापार के नियम इस प्रकार के प्रचलित करे कि सारी प्रजा धनधान्य से परिपूर्ण हो। राज्य में शिल्पों को राज्य द्वारा प्रोत्साहन व संरक्षण मिले।
३. ये राजपुरुष ( अमृताः ) = नाना प्रकार के रोगों के शिकार न हों [ मृत्यु = रोग ]।
४. ( ऋतज्ञाः ) = ऋत के ये जाननेवाले हों, इनका अपना जीवन ऋतमय हो। इनकी दिनचर्या बड़ी व्यवस्थित हो।
५. ( अस्य मध्वः पिबत ) = इस सोमरूप मधु का ये पान करें और ( मादयध्वम् ) = आनन्दित हों। जिस प्रकार विविध पुष्प-रसों का सारभूत मधु = शहद होता है उसी प्रकार नाना ओषधियों का सारभूत सोम [ वीर्य ] शरीर के अन्दर उत्पन्न होता है। इस सोम का ये पान करनेवाले हों। ऐसे ही राजपुरुष प्रजा के रक्षण-कार्यों में शक्त होते हैं।
६. ( तृप्ताः ) = ये सदा तृप्त और सन्तुष्ट हों, इन्हें सदा भूख न लगती रहे। अतृप्त राजपुरुष ही रिश्वत आदि की ओर झुकाववाले होते हैं। और ७. ये सदा ( देवयानैः पथिभिः यात ) = देवयान मार्गों से चलें। राजपुरुष उत्तम मार्गों को ही अपनाएँ, ये देवताओं के चलने योग्य मार्गों से चलेंगे तो प्रजा भी देवयानमार्गानुयायिनी होगी। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ = प्रजा तो राजाओं के ही मार्गों को अपनाती है।
भावार्थ -
भावार्थ — राजपुरुष नीरोग, व्यवस्थित जीवनवाले, सोम के रक्षक, सदा तृप्त तथा उत्तम मार्गों से चलनेवाले हों। ऐसे ही राजपुरुष संग्रामों में विजेता बनकर प्रजा के रक्षक होते हैं तथा प्रजा की आर्थिक स्थिति को ठीक कर पाते हैं।
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