यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 4
ऋषिः - बृहस्पतिर्ऋषिः
देवता - राजधर्मराजादयो देवताः
छन्दः - भूरिक कृति,
स्वरः - निषादः
2
ग्रहा॑ऽऊर्जाहुतयो॒ व्यन्तो॒ विप्रा॑य म॒तिम्। तेषां॒ विशि॑प्रियाणां वो॒ऽहमिष॒मूर्ज॒ꣳ सम॑ग्रभमुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्। स॒म्पृचौ॑ स्थः॒ सं मा॑ भ॒द्रेण॑ पृङ्क्तं वि॒पृचौ॑ स्थो॒ वि मा॑ पा॒प्मना॑ पृङ्क्तम्॥४॥
स्वर सहित पद पाठग्रहाः॑। ऊ॒र्जा॒हु॒त॒य॒ इत्यू॑र्जाऽआहुतयः। व्यन्तः॑। विप्रा॑य। म॒तिम्। तेषा॑म्। विशि॑प्रियाणा॒मिति॒ विऽशि॑प्रियाणाम्। वः॒। अ॒हम्। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। सम्। अ॒ग्र॒भ॒म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम्। स॒म्पृचा॒विति॑ स॒म्ऽपृचौ॑। स्थः॒। सम्। मा॒। भ॒द्रेण॑। पृ॒ङ्क्त॒म्। वि॒पृचा॒विति॑ वि॒ऽपृचौ॑। स्थः॒। वि। मा॒। पा॒प्मना॑। पृ॒ङ्क्त॒म् ॥४॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्रहा ऽऊर्जाहुतयो व्यन्तो विप्राय मतिम् । तेषाँविशिप्रियाणाँवो हमिषमूर्जँ समग्रभमुपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा जुष्टङ्गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम् । सम्पृचौ स्थः सम्मा भद्रेण पृङ्क्तँविपृचौ स्थो वि मा पाप्मना पृङ्क्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
ग्रहाः। ऊर्जाहुतय इत्यूर्जाऽआहुतयः। व्यन्तः। विप्राय। मतिम्। तेषाम्। विशिप्रियाणामिति विऽशिप्रियाणाम्। वः। अहम्। इषम्। ऊर्जम्। सम्। अग्रभम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। जुष्टम्। गृह्णामि। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। जुष्टतममिति जुष्टऽतमम्। सम्पृचाविति सम्ऽपृचौ। स्थः। सम्। मा। भद्रेण। पृङ्क्तम्। विपृचाविति विऽपृचौ। स्थः। वि। मा। पाप्मना। पृङ्क्तम्॥४॥
विषय - राजा व प्रजा
पदार्थ -
१. राजा कहता है कि हे ( ग्रहाः ) = [ ग्रहीतारः ] उत्तमोत्तम वस्तुओं का ग्रहण करनेवाले गृहाश्रमियो! तुम २. ( ऊर्जाहुतयः ) = [ ऊर्जं आह्वयन्ति ] अन्न व रस का आह्वान करनेवाले हो। श्रम करते हुए प्रभु से अन्न व रस की याचना करते हो।
३. ( विप्राय ) = विशेषरूप से अपना पूरण करने के लिए ( मतिम् ) = बुद्धि को ( व्यन्तः ) = [ गमयन्तः ] अपने को प्राप्त कराते हो।
४. ( वि-शिप्रियाणाम् ) = विहीन जबड़ोंवाले, अर्थात् बहुत अधिक न खाने-पीनेवाले, खाने-पीने में आसक्त न हो जानेवाले ( तेषाम् ) = उन ( वः ) = आपके ( इषम् ऊर्जम् ) = अन्न व रस को ( समग्रभम् ) = सम्यक्तया ग्रहण करता हूँ। मनु के निर्देशानुसार ‘धान्यानामष्टमो भागः’ आपके अन्नादि का आठवे भाग को मैं लेता हूँ।
५. प्रजा कहती है—हे राजन्! तू ( उपयामगृहीतः असि ) = उपासना द्वारा यम-नियम से स्वीकृत जीवनवाला है। ( जुष्टम् ) = राष्ट्र का प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले ( त्वा ) = तुझे ( इन्द्राय ) = राष्ट्र के ऐश्वर्य के लिए ( गृह्णामि ) = ग्रहण करती हूँ। ( एषः ते योनिः ) = यह राष्ट्र ही तेरा घर है। ( जुष्टतमम् ) = राष्ट्र की सर्वाधिक प्रीतिपूर्वक सेवा करनेवाले ( त्वा ) = तुझे ( इन्द्राय ) = राष्ट्र के ऐश्वर्य के लिए ग्रहण करते हैं।
६. प्रजा राजा व रानी से कहती है कि ( सम्पृचौ स्थः ) = आप सदा अपने जीवनों को उत्तमताओं से संयुक्त करनेवाले हो। ( मा ) = मुझे भी ( भद्रेण ) = शुभ से ( संपृक्तम् ) = संपृक्त करो। ( विपृचौ स्थः ) = आप अपने को बुराइयों से अलग करनेवाले हो, ( मा ) = मुझे ( पाप्मना ) = पाप से ( विपृङ्क्तम् ) = अलग करो। वस्तुतः राजा का जीवन प्रजा के जीवन को अत्यधिक प्रभावित करता है। राजा उत्तम होगा तो प्रजा भी उत्तम होगी। राजा व्यसनी होगा तो प्रजा भी वैसी ही हो जाएगी।
भावार्थ -
भावार्थ — राजा प्रजाओं से उचित कर ग्रहण करे। अपने जीवन को उत्तम बनाता हुआ प्रजाओं के जीवन को भी उत्तम बनाये।
टिप्पणी -
सूचना — ऊपर ‘विशिप्रियाणाम्’ शब्द इस भावना को सुव्यक्त कर रहा है कि प्रजाएँ अपनी विषयलोलुपता को बढ़ा लेती हैं तो उन्हें कर देना भारी प्रतीत होने लगता है। उनकी इन्द्रियाँ खाने-पीने के व्यसनों में नहीं फँसती तो वे कर देने में उत्साहवाली होती हैं।
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