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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 9
    ऋषिः - बृहस्पतिर्ऋषिः देवता - वीरो देवता छन्दः - धृति स्वरः - ऋषभः
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    ज॒वो यस्ते॑ वाजि॒न्निहि॑तो॒ गुहा॒ यः श्ये॒ने परी॑त्तो॒ऽअच॑रच्च॒ वाते॑। तेन॑ नो वाजि॒न् बल॑वा॒न् बले॑न वाज॒जिच्च॒ भव॒ सम॑ने च पारयि॒ष्णुः। वाजि॑नो वाजजितो॒ वाज॑ꣳ सरि॒ष्यन्तो॒ बृह॒स्पते॑र्भा॒गमव॑जिघ्रत॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज॒वः। यः। ते॒। वा॒जि॒न्। निहि॑त॒ इति॑ निऽहि॑तः। गुहा॑। यः। श्ये॒ने। परी॑त्तः। अच॑रत्। च॒। वाते॑। ते॑न। नः॒। वा॒जि॒न्। बल॑वा॒निति॒ बल॑ऽवान्। बले॑न। वा॒ज॒जिदिति॑ वाज॒ऽजित्। च॒। भव॑। सम॑ने। च॒। पा॒र॒यि॒ष्णुः। वाजि॑नः। वा॒ज॒जि॒त इति॑ वाजऽजितः। वाज॑म्। स॒रि॒ष्यन्तः॑। बृह॒स्पतेः॑। भा॒गम्। अव॑। जि॒घ्र॒त॒ ॥९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जवो यस्ते वाजिन्निहितो गुहा यः श्येने परीत्तो अचरच्च वाते । तेन नो वाजिन्बलवान्बलेन वाजजिच्च भव समने च पारयिष्णुः । वाजिनो वाजजितो वाजँ सरिष्यन्तो बृहस्पतेर्भागमव जिघ्रत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    जवः। यः। ते। वाजिन्। निहित इति निऽहितः। गुहा। यः। श्येने। परीत्तः। अचरत्। च। वाते। तेन। नः। वाजिन्। बलवानिति बलऽवान्। बलेन। वाजजिदिति वाजऽजित्। च। भव। समने। च। पारयिष्णुः। वाजिनः। वाजजित इति वाजऽजितः। वाजम्। सरिष्यन्तः। बृहस्पतेः। भागम्। अव। जिघ्रत॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 9
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    पदार्थ -

    १. हे ( वाजिन् ) = बल-सम्पन्न व क्रियाशील राजन्! ( यः ) = जो ( ते जवः ) = तेरा वेग ( गुहा ) = बुद्धि में ( निहितः ) = स्थापित है, ( यः ) = जो तेरा वेग ( श्येने ) = [ श्यैङ् गतौ ] क्रियाशीलता में व शत्रुओं पर बाज की भाँति झपट्टा मारने में ( परीत्तः ) = स्थापित है [ परिदत्तः परिततो वा ] ( च ) = और जो तेरा वेग ( वाते ) = वायु में, अर्थात् वायु के समान राष्ट्र के सब भागों में विचरने में ( अचरत् ) = गतिवाला होता है, ( तेन ) = उस बुद्धि में, शत्रु पर आक्रमण करने में तथा वायुवत् सम्पूर्ण राष्ट्र में भ्रमण करने में परिणत होनेवाले ( बलेन ) = बल से ( बलवान् ) = बलवाला ( वाजिन् ) =  क्रियाशील तू ( नः ) = हमारे लिए ( वाजजित् भव ) = सब प्रकार के अन्नो व बलों को जीतनेवाला हो ( च ) = और ( समने ) = युद्ध में ( पारयिष्णुः ) = हमें पार लगानेवाला हो। 

    २. इस मन्त्रार्थ में यह स्पष्ट है कि राजा का वेग तीन जगह प्रकट हो [ क ] शासन के अर्थों के उद्देश्य को समझने में, [ ख ] शत्रु पर श्येनवत् आक्रमण करके शत्रु को समाप्त करने में तथा [ ग ] राष्ट्र के सब भागों के निरीक्षण में। ऐसा राजा ही राष्ट्र के अन्नादि के अभाव को दूर करेगा और युद्ध में शत्रुओं का शातन करने में समर्थ होगा। 

    ३. इन राजकार्य-व्यापृत लोगों के लिए कहते हैं कि तुम [ क ] ( वाजिनः ) = [ वज गतौ ] ख़ूब क्रियाशील बनो [ ख ] ( वाजजितः ) =  संग्रामों को जीतनेवाले बनो [ ग ] ( वाजम् सरिष्यन्तः ) = अन्न की ओर चलनेवाले होओ, अर्थात् राष्ट्र में कभी अन्नादि की कमी न होने दो [ घ ] ऐसा करते हुए तुम ( बृहस्पतेः ) = उस ब्रह्मणस्पति—वेदवाणी के पति परमात्मा की ( भागम् ) = [ भज सेवायाम् ] भजनीय, सेवनीय—इस वेदवाणी को भी ( अवजिघ्रत ) = जरा सूँघो, उसकी गन्ध का भी ग्रहण करो, अर्थात् ज्ञान-प्राप्ति के लिए थोड़ा-सा समय अवश्य निकालो। शूरता के साथ ज्ञान का सम्पुट आवश्यक है, अन्यथा शूरता कुछ बर्बरता को लिये हुए हो जाती है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — राजा शूर हो, उसकी शूरता विद्वत्ता के मिश्रणवाली हो। ज्ञानपूर्वक वह राष्ट्र-शत्रुओं का दमन करनेवाला हो।

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