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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 11
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदार्षी भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    य॑ज्ञाय॒ज्ञिया॑यच॒ वै स वा॑मदे॒व्याय॑ च य॒ज्ञाय॑ च॒ यज॑मानाय च प॒शुभ्य॒श्चा वृ॑श्चते॒ य ए॒वंवि॒द्वांसं॒ व्रात्य॑मुप॒वद॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञा॒य॒ज्ञिया॑य । च॒ । वै । स: । वा॒म॒ऽदे॒व्याय॑ । च॒ । य॒ज्ञाय॑ । च॒ । यज॑मानाय । च॒ । प॒शुऽभ्य॑: । च॒ । आ । वृ॒श्च॒ते॒ । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । व्रात्य॑म् । उ॒प॒ऽवद॑ति ॥२.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञायज्ञियायच वै स वामदेव्याय च यज्ञाय च यजमानाय च पशुभ्यश्चा वृश्चते य एवंविद्वांसं व्रात्यमुपवदति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञायज्ञियाय । च । वै । स: । वामऽदेव्याय । च । यज्ञाय । च । यजमानाय । च । पशुऽभ्य: । च । आ । वृश्चते । य: । एवम् । विद्वांसम् । व्रात्यम् । उपऽवदति ॥२.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 11

    पदार्थ -

    १. (स:) = वह व्रात्य (उदतिष्ठत्) = उठता है। आलस्य को छोड़कर आगे बढ़ता हुआ (सः) = वह (दक्षिणां दिशम्) = नैपुण्य की दिशा को (अनुव्यचलत्) = अनुक्रमेण प्राप्त होता है, किसी भी क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ता हुआ वह बड़ा निपुण बन जाता है। २. (तम्) = उस नैपुण्यप्राप्त व्रात्य को (यज्ञायज्ञियं च) = [सर्वेभ्यो यज्ञेभ्यः हितकरं वेदज्ञानम्] सब यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान, (वामदेव्यं च) = सुन्दर, दिव्यगुणों [वाम lovely] के लिए हितकर प्रभु-स्तवन, (यज्ञ: च) = श्रेष्ठतम कर्म, (यजमाना: च) = यज्ञशील पुरुष (च) = तथा (पशवः) = यज्ञघृत को प्राप्त कराने के लिए आवश्यक गवादि पशु (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त होते हैं। उसके अनुकूल गतिवाले होते हैं। ३. (सः) = वह प्रात्य विद्वान् (वै) = निश्चय से (यज्ञायज्ञियाय च) = यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान के लिए, (वामदेव्याय च) = सुन्दर, दिव्यगुणों के लिए हितकर प्रभु-स्तवन के लिए, (यज्ञाय च) = यज्ञ के लिए, यजमानाय च यज्ञशील पुरुष की प्राप्ति के लिए, (पशुभ्यः च) = गवादि पशुओं की प्राप्ति के लिए (आवृश्चते) = समन्तात् वासनारूप शत्रुओं का छेदन करता है। वह व्यक्ति भी ऐसा ही करता है, (यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (विद्वांसं व्रात्यं उपवदति) = ज्ञानी व्रतीपुरुष के समीप इसीप्रकार ज्ञानचर्चा करता है। ४. यह वासनारूप शत्रुओं का छेदन करनेवाला पुरुष (वै) = निश्चय से (यज्ञायजिस्य च) = यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान का (वामदेवस्य च) = सुन्दर, दिव्यगुणों के लिए हितकर प्रभु स्तवन का (यज्ञस्य च) = यज्ञ का, (यजमानस्य च) = यज्ञशील पुरुषों का, (पशूनां च) = यज्ञ का घृत प्राप्त करानेवाले गवादि पशुओं का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है-ये सब इसे प्राप्त होते हैं, (तस्य) = उस विद्वान् व्रात्य के जीवन में (दक्षिणां दिशि) = दक्षिण दिशा में 'यज्ञायज्ञीय, वामदेव्य, यज्ञ, यजमान, पशु' जीवन के साथी बनते हैं।

    भावार्थ -

    यह विद्वान् व्रात्य आलस्य को छोड़कर आगे बढ़ता हुआ नैपुण्य को प्राप्त करता है तो वह 'यज्ञों के लिए हितकर वेदज्ञान को, दिव्यगुणोत्पादक प्रभु-स्तवन को, यज्ञों को, यज्ञमानों व पशुओं' को प्राप्त करता है।

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