अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी गायत्री, पदपङ्क्ति,त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
अह॑श्च॒ रात्री॑च परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम्। मा॑त॒रिश्वा॑ च॒ पव॑मानश्च विपथवा॒हौ वा॒तः सार॑थीरे॒ष्मा प्र॑तो॒दः। की॒र्तिश्च॒ यश॑श्च पुरःस॒रावैनं॑ की॒र्तिर्ग॑च्छ॒त्या यशो॑गच्छति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअह॑: । च॒ । रात्री॑ । च॒ । प॒रि॒ऽस्क॒न्दौ । मन॑: । वि॒ऽप॒थम् । मा॒त॒रिश्वा॑ । च॒ । पव॑मान: । च॒ । वि॒प॒थ॒ऽवा॒हौ । वात॑: । सार॑थि: । रे॒ष्मा । प्र॒ऽतो॒द: । की॒र्ति: । च॒ । यश॑: । च॒ । पु॒र॒:ऽस॒रौ । आ । ए॒न॒म् । की॒र्ति: । ग॒च्छ॒ति॒ । आ । यश॑: । ग॒च्छ॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥२.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
अहश्च रात्रीच परिष्कन्दौ मनो विपथम्। मातरिश्वा च पवमानश्च विपथवाहौ वातः सारथीरेष्मा प्रतोदः। कीर्तिश्च यशश्च पुरःसरावैनं कीर्तिर्गच्छत्या यशोगच्छति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठअह: । च । रात्री । च । परिऽस्कन्दौ । मन: । विऽपथम् । मातरिश्वा । च । पवमान: । च । विपथऽवाहौ । वात: । सारथि: । रेष्मा । प्रऽतोद: । कीर्ति: । च । यश: । च । पुर:ऽसरौ । आ । एनम् । कीर्ति: । गच्छति । आ । यश: । गच्छति । य: । एवम् । वेद ॥२.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 20
विषय - प्रत्याहार में सफल बनने के लिए
पदार्थ -
१. इस व्रात्य विद्वान् के प्रत्याहार की दिशा में चलने पर इस (पुंश्चली) = ज्ञानवाणी की अधिष्ठात्री देवता पत्नी के समान होती है-प्रेरणा देनेवाली होती है। (हस: मागधः) = हास्य इसका स्तुतिपाठक होता है, इसे अपने चारों ओर खिलते हुए फूल व चमकते हुए [twinkling] तारे प्रभु-स्तवन करते प्रतीत होते है। शेष पञ्चम मन्त्रवत्। २. (अह च रात्री च) = दिन और रात (परिष्कन्दौ) = सेवक [servant] होते हैं। दिन इसे यज्ञादि उत्तम कर्मों को करने का अवसर देता है और रात्री इसे अपने अन्दर फिर से शक्ति भरने में सहायक होती है। शेष सप्तमाष्टममन्त्रवत्।
भावार्थ -
यह व्रात्य विद्वान् इस प्रत्याहार में सफलता प्राप्त करने के लिए सरस्वती का प्रिय बनता है, प्रसन्न रहता हुआ प्रभु-स्तवन करता है, दिन को यज्ञादि उत्तम कर्मों में व्यतीत करता है और रात्रि में विश्राम करता हुआ फिर से अपने में शक्ति भरता है।
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