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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदार्ची जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    उषाः पुं॑श्च॒लीमन्त्रो॑ माग॒धो वि॒ज्ञानं॒ वासोऽह॑रु॒ष्णीषं॒ रात्री॒ केशा॒ हरि॑तौ प्रव॒र्तौक॑ल्म॒लिर्म॒णिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒षा: । पुं॒श्च॒ली । मन्त्र॑: । मा॒ग॒ध: । वि॒ऽज्ञान॑म् । वास॑: । अह॑: । उ॒ष्णीष॑म् । रात्री॑ । केशा॑: । हरि॑तौ । प्र॒ऽव॒र्तौ । क॒ल्म॒लि: । म॒णि: ॥२.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उषाः पुंश्चलीमन्त्रो मागधो विज्ञानं वासोऽहरुष्णीषं रात्री केशा हरितौ प्रवर्तौकल्मलिर्मणिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उषा: । पुंश्चली । मन्त्र: । मागध: । विऽज्ञानम् । वास: । अह: । उष्णीषम् । रात्री । केशा: । हरितौ । प्रऽवर्तौ । कल्मलि: । मणि: ॥२.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 13

    पदार्थ -

    १. दक्षिण दिशा में-नैपुण्य की दिशा में गतिवाले इस विद्वान् व्रात्य की (उषा:) = उषा (पुंश्चली) = नारी के समान होती है, इसे कर्मों में प्रेरित करती है। यह उषा में ही उठकर कर्तव्य कर्मों का प्रारम्भ करता है। (मन्त्र: मागध:) = वेदमन्त्र इसके स्तुति-पाठक होते हैं। यह मन्त्रों द्वारा प्रभु-स्तवन करता है। शेष मन्त्र पञ्चमवत्। २. (अमावास्या च पौर्णमासी च परिष्कन्दौ) = अमावास्या और पौर्णमासी इसके सेवक होते हैं। अमावास्या से यह अपने जीवन में सूर्य-चन्द्र के समन्वय का पाठ पढ़ता है। मस्तिष्क में ज्ञानसूर्य को तथा हृदय में मन:प्रसादरूप चन्द्र को उदित करने का प्रयत्न करता है तथा पौर्णमासी से जीवन को पूर्ण चन्द्र की भाँति सोलह कला सम्पूर्ण बनाने के लिए यत्नशील होता है। शेष मन्त्र षष्टवत्।

    भावार्थ -

    यह विद्वान् व्रात्य आगे बढ़ता हुआ, नैपुण्य को प्राप्त करता हुआ, ऐश्वर्यसम्पन्न होकर भी उषाकाल में प्रबुद्ध होकर मन्त्रों द्वारा प्रभु-स्तवन करता है। अपने जीवन में ज्ञान व मन:प्रसाद का समन्वय करता है और जीवन को पूर्ण व चन्द्र की भाँति सोलह कला सम्पन्न बनाता है।

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