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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    भू॒तं च॑भवि॒ष्यच्च॑ परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भू॒तम् । च॒ । भ॒वि॒ष्यत् । च॒ । प॒रि॒ऽस्क॒न्दौ । मन॑: । वि॒ऽप॒थम् ॥२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूतं चभविष्यच्च परिष्कन्दौ मनो विपथम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भूतम् । च । भविष्यत् । च । परिऽस्कन्दौ । मन: । विऽपथम् ॥२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. प्राची दिशा में आगे बढ़नेवाले इस विद्वान् व्रात्य की (श्रद्धा पुंश्चली) = श्रद्धा प्रेरिका भावना होती है [प्रमोर्स चालयति प्रेरयति]! यह अपने अग्रगति के मार्ग पर श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ता है। इसके लिए (मित्र:) = प्राणशक्ति के संचार द्वारा मृत्यु से रक्षित करनेवाला [प्रमीते त्रायते] सूर्य (मागधः) = स्तुति पाठक होता है। सूर्य इन्हें प्रभु-स्तवन करता प्रतीत होता है। सूर्य प्रभु की अद्भुत विभूति है-यह प्रभु की महिमा का मानो गायन करता है। (विज्ञानं वास:) = विज्ञान इसका वस्त्र होता है। विज्ञान इसके आच्छादन का साधन बनता है। (अहः उष्णीषम्) = दिन इसका उष्णीष स्थानापन्न होता है। दिन को यह शिरोवेष्टन-मुकुट बनाता है। दिन के एक-एक क्षण को यह उपयुक्त करता हुआ उन्नति-शिखर पर पहुँचने के लिए यत्नशील होता है। (रात्री केश:) = रात्रि इसके केश बनते हैं। केश जैसे सिर के रक्षक होते हैं उसीप्रकार रात्रि इसके लिए रमयित्री होती हुई इसे स्वस्थ मस्तिष्क बनाती है। (हरितौ) = अन्धकार का हरण करनेवाले सूर्य और चन्द्र प्रवतौ इसे विराट् पुरुष के कुण्डल प्रतीत होते हैं और (कल्मलि:) = तारों की ज्योति [splendour] (मणि:) = उसे विराट् पुरुष की मणि प्रतीत होती है। ये सूर्य-चन्द्र व तारों में प्रभु की महिमा को देखता है। २. (भूतं च भविष्यत् च) = भूत और भविष्यत् (परिष्कन्दौ) = इसके दास [servent] होते हैं। भूत से यह गलतियों को न करने का पाठ पढ़ता है और भविष्यत् को उज्ज्वल बनाने के स्वप्न लेता है तथा प्रवृद्ध पुरुषार्थवाला होता है। (मन:) = मन इसका (विपथम्) = विविध मार्गों से गति करनेवाला युद्ध का रथ होता है। मन के दृढ़ संकल्प से ही तो इसने जीवन-संग्राम में विजय पानी है। ३. (मातरिश्वा च पवमानश्च) = श्वास तथा उच्चास इसके (विपथवाहौ) = मनरूपी रथ के वाहक घोड़े होते हैं। प्राणापान के द्वारा ही जीवन-रथ आगे बढ़ता है। (वात: सारथी) = क्रियाशीलता [वा गतौ] इस रथ का सारथि है। (रेष्मा प्रतोदः) = वासनाओं का संहार ही चाबुक है। ४. (कीर्तिः च यश: च) = प्रभु-गुणगान [glory, speach] व [कीर्तन तथा दीप्ति splendour] इसके (पुर: सरौ) = आगे चलनेवाले होते हैं। (यः एवं वेदः) = जो इसप्रकार इस सारी बात को समझ लेता है, वह भी इस मार्ग पर चलता है और (कीर्तिः गच्छति) = कीर्ति प्राप्त होती है तथा (यश:) = गच्छति यश प्राप्त होता है।

    भावार्थ -

    विद्वान् व्रात्य जब प्राची दिशा में [अग्न गति की दिशा में] आगे बढ़ता है तब उसे श्रद्धा, कीर्ति व यशादि प्राप्त होते हैं।

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