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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदा ब्राह्मी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    बृ॑ह॒तश्च॒ वै सर॑थन्त॒रस्य॑ चादि॒त्यानां॑ च॒ विश्वे॑षां च दे॒वानां॑ प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ तस्य॒ प्राच्यां॑ दि॒शि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒ह॒त: । च॒ । वै । स: । र॒थ॒म्ऽत॒रस्य॑ । च॒ । आ॒दि॒त्याना॑म् । च॒ । विश्वे॑षाम् । च॒ । दे॒वाना॑म् । प्रि॒यम् । धाम॑ । भ॒व॒ति॒ । तस्य॑ । प्राच्या॑म् । दि॒शि ॥२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहतश्च वै सरथन्तरस्य चादित्यानां च विश्वेषां च देवानां प्रियं धाम भवति तस्य प्राच्यां दिशि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहत: । च । वै । स: । रथम्ऽतरस्य । च । आदित्यानाम् । च । विश्वेषाम् । च । देवानाम् । प्रियम् । धाम । भवति । तस्य । प्राच्याम् । दिशि ॥२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (स:) = वह व्रात्य (उदतिष्ठत्) = उठा, आलस्य को छोड़कर उद्यत हो गया और (स:) = वह (प्राचीं दिशम्) = [प्र अञ्च] आगे बढ़ने की दिशा को (अनुव्यचलत्) = लक्ष्य करके चला। व्रतमय जीवनवाला पुरुष क्यों न आगे बढ़ेगा? २. (तम्) = उस व्रतमय जीवनवाले, अग्रगति के लिए निरन्तर उद्यत व्रात्य को (बृहत् च) = हदय की विशालता, (रथन्तरं च) = शरीररूप रथ से जीवनमार्ग को पार करने की वृत्ति (आदित्याः च) = सूर्यसम ज्ञानदीसिया तथा (विश्वेदेवा:) = सब दिव्यगुण (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। ३. (स:) = वह व्रात्य वै-निश्चय से (बृहते च) = हृदय की विशालता के लिए (रथन्तराय) = शरीररूप रथ के द्वारा जीवनमार्ग को पार करने की वृत्ति के लिए (आदित्येभ्यः च) = ज्ञानदीतियों को प्राप्त करने के लिए (च) = और (विश्वेभ्यः देवेभ्यः) = सब दिव्यगुणों के ग्रहण के लिए (आवृश्चते) = समन्तात् वासनारूप शत्रुओं का छेदन करता है। यह भी शत्रुओं का छेदन करने में प्रवृत्त होता है।(यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (विद्वांसं वात्यम् उपवदति) = ज्ञानी व्रतीपुरुष के समीप उपस्थित होकर इन ज्ञानों व व्रतों की चर्चा करता है-इन ज्ञान व व्रत की बातों को ही पूछता है, ४. (स:) = वह (वै) = निश्चय से (बृहत् च) = विशाल हृदय का (रथन्तरस्य च) = शरीर-रथ से जीवन-यात्रा के मार्ग को पार करने की वृत्ति का, (आदित्यनांच) = विज्ञानों के आदानों का (च) = और (विश्वेषां देवानाम्) = सब दिव्यगुणों का प्(रियं धाम भवति) = प्रियधाम बनता है। इन सब बातों का वह निवासस्थान होता है। (तस्य) = उस विद्वान् व्रात्य के जीवन में (प्राच्यां दिशि) = प्रगति की दिशा में 'बृहत, रथन्तर, आदित्य और विश्वेदेव' जीवन के साथी बनते हैं।

    भावार्थ -

    जिस समय यह व्रतमय जीवनवाला पुरुष आलस्य को छोड़कर प्रगति की दिशा में आगे बढ़ता है तब इस दिशा में वह 'विशालहृदयता, शरीर-रथ से जीवनमार्ग को पार करने को वृत्ति, विज्ञानों का आदान व दिव्यगुणों के धारण' से अलंकृत जीवनवाला होता है।

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