अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी पङ्क्ति,पदपङ्क्ति,त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
अ॑मावा॒स्या चपौर्णमा॒सी च॑ परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम्। मा॑त॒रिश्वा॑ च॒ पव॑मानश्च विपथवा॒हौवा॒तः सार॑थी रे॒ष्मा प्र॑तो॒दः। की॒र्तिश्च॒ यश॑श्च पुरःस॒रावैनं॑की॒र्तिर्ग॑च्छ॒त्या यशो॑ गच्छति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मा॒ऽवा॒स्या᳡ । च॒ । पौ॒र्ण॒ऽमा॒सी । च॒ । प॒रि॒ऽस्क॒न्दौ । मन॑: । वि॒ऽप॒थम् । मा॒त॒रिश्वा॑ । च॒ । पव॑मान: । च॒ । वि॒प॒थ॒ऽवा॒हौ । वात॑: । सार॑थि: । रे॒ष्मा । प्र॒ऽतो॒द: । की॒र्ति: । च॒ । यश॑: । च॒ । पु॒र॒:ऽस॒रौ । आ । ए॒न॒म् । की॒र्ति: । ग॒च्छ॒ति॒ । आ । यश॑: । ग॒च्छ॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ।॥२.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अमावास्या चपौर्णमासी च परिष्कन्दौ मनो विपथम्। मातरिश्वा च पवमानश्च विपथवाहौवातः सारथी रेष्मा प्रतोदः। कीर्तिश्च यशश्च पुरःसरावैनंकीर्तिर्गच्छत्या यशो गच्छति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठअमाऽवास्या । च । पौर्णऽमासी । च । परिऽस्कन्दौ । मन: । विऽपथम् । मातरिश्वा । च । पवमान: । च । विपथऽवाहौ । वात: । सारथि: । रेष्मा । प्रऽतोद: । कीर्ति: । च । यश: । च । पुर:ऽसरौ । आ । एनम् । कीर्ति: । गच्छति । आ । यश: । गच्छति । य: । एवम् । वेद ।॥२.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
विषय - उषा, अमावास्या, पौर्णमासी
पदार्थ -
१. दक्षिण दिशा में-नैपुण्य की दिशा में गतिवाले इस विद्वान् व्रात्य की (उषा:) = उषा (पुंश्चली) = नारी के समान होती है, इसे कर्मों में प्रेरित करती है। यह उषा में ही उठकर कर्तव्य कर्मों का प्रारम्भ करता है। (मन्त्र: मागध:) = वेदमन्त्र इसके स्तुति-पाठक होते हैं। यह मन्त्रों द्वारा प्रभु-स्तवन करता है। शेष मन्त्र पञ्चमवत्। २. (अमावास्या च पौर्णमासी च परिष्कन्दौ) = अमावास्या और पौर्णमासी इसके सेवक होते हैं। अमावास्या से यह अपने जीवन में सूर्य-चन्द्र के समन्वय का पाठ पढ़ता है। मस्तिष्क में ज्ञानसूर्य को तथा हृदय में मन:प्रसादरूप चन्द्र को उदित करने का प्रयत्न करता है तथा पौर्णमासी से जीवन को पूर्ण चन्द्र की भाँति सोलह कला सम्पूर्ण बनाने के लिए यत्नशील होता है। शेष मन्त्र षष्टवत्।
भावार्थ -
यह विद्वान् व्रात्य आगे बढ़ता हुआ, नैपुण्य को प्राप्त करता हुआ, ऐश्वर्यसम्पन्न होकर भी उषाकाल में प्रबुद्ध होकर मन्त्रों द्वारा प्रभु-स्तवन करता है। अपने जीवन में ज्ञान व मन:प्रसाद का समन्वय करता है और जीवन को पूर्ण व चन्द्र की भाँति सोलह कला सम्पन्न बनाता है।
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