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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 32

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृगुः देवता - दर्भः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दर्भ सूक्त

    दि॒वि ते॒ तूल॑मोषधे पृथिव्यामसि॒ निष्ठि॑तः। त्वया॑ स॒हस्र॑काण्डे॒नायुः॒ प्र व॑र्धयामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वि। ते॒। तूल॑म्। ओ॒ष॒धे॒। पृ॒थि॒व्याम्। अ॒सि॒। निऽस्थि॑तः। त्वया॑। स॒हस्र॑ऽकाण्डेन। आयुः॑। प्र। व॒र्ध॒या॒म॒हे॒ ॥३२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवि ते तूलमोषधे पृथिव्यामसि निष्ठितः। त्वया सहस्रकाण्डेनायुः प्र वर्धयामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवि। ते। तूलम्। ओषधे। पृथिव्याम्। असि। निऽस्थितः। त्वया। सहस्रऽकाण्डेन। आयुः। प्र। वर्धयामहे ॥३२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. हे (ओषधे) = दोषों का दहन करनेवाली वीर्यमणे । (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (ते) = तेरा (तूलम्) = [तूल पूरणे to fill] पूरण हुआ है। वीर्य की ऊर्ध्वगति होने पर यह वीर्य ज्ञानाग्नि का ईंधन बना है। हे वीर्य! तू (पृथिव्याम्) = इस शरीररूप पृथिवी में (निष्ठितः असि) = निश्चय से स्थित हुआ है। वीर्य ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है, तो शरीररूप पृथिवी को दृढ़ बनाता है। २. (सहस्त्रकाण्डेन) = शत्रुओं के संहार के लिए हज़ारों बाणोंवाले (त्वया) = तुझसे हम (आयुः) = अपने जीवन को (प्रवर्धयामहे) = दीर्घ बनाते हैं।

    भावार्थ - वीर्य की ऊर्ध्वगति होने पर यह ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है। यह शरीररूप पृथिवी को दृढ़ बनाता है। शत्रुओं को नष्ट करने के लिए सहखों बाण तुझे धारण करके अपने जीवन को दीर्घ बनाते हैं।

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