अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 4
ति॒स्रो दि॒वो अत्य॑तृणत्ति॒स्र इ॑माः पृथि॒वीरु॒त। त्वया॒हं दु॒र्हार्दो॑ जि॒ह्वां नि तृ॑णद्मि॒ वचां॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठति॒स्रः। दि॒वः। अति॑। अ॒तृ॒ण॒त्। ति॒स्रः। इ॒माः। पृ॒थि॒वीः। उ॒त। त्वया॑। अ॒हम्। दुः॒ऽहार्दः॑। जि॒ह्वाम्। नि। तृ॒ण॒द्मि॒। वचां॑सि ॥३२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तिस्रो दिवो अत्यतृणत्तिस्र इमाः पृथिवीरुत। त्वयाहं दुर्हार्दो जिह्वां नि तृणद्मि वचांसि ॥
स्वर रहित पद पाठतिस्रः। दिवः। अति। अतृणत्। तिस्रः। इमाः। पृथिवीः। उत। त्वया। अहम्। दुःऽहार्दः। जिह्वाम्। नि। तृणद्मि। वचांसि ॥३२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 4
विषय - दुर्हाद् का सुहार्द् बन जाना
पदार्थ -
१. हे वीर्यमणे! तू (तिस्त्र: दिव:) = तीनों प्रकाशों को [धुलोकों को] अत्यतृणत् [तृ to set free] अन्धकार से मुक्त करती है। (उत) = और (इमा:) = इन (तिस्त्रः) = तीनों (पृथिवी:) = शरीररूप पृथिवियों को भी रोगों से मुक्त करती है। 'स्थूल, सूक्ष्म व कारण' भेद से तीन शरीर ही तीन पृथिवियाँ है। वीर्यरक्षण से ये तीनों नीरोग व निर्दोष बनते हैं। इसीप्रकार 'प्रकृति, जीव व परमात्मा' का ज्ञान ही त्रिविध द्युलोक है, वीर्यरक्षण ही इस धुलोक को अज्ञानान्धकार शून्य करता है। २. हे वीर्य! (त्वया) = तेरे रक्षण के द्वारा (अहम्) = मैं (दुर्हादः) = दुष्ट हृदयवाले की (जिह्वाम्) = जिह्वा को तथा (वचांसि) = वचनों को (नितृणनि) = समाप्त करता हूँ। वीर्यरक्षक पुरुष व्यवहार में इतना मधुर होता है कि इसके मधुर वचनों से दुष्ट पुरुष भी शान्त हो जाता है। इसका सूत्र होता है 'अक्रोधेन जयेत् क्रोध, आक्रुष्टः कुशलं वदेत् । सो दुर्दा पुरुष भी इसके व्यवहार से सुहा बन जाता है।
भावार्थ - वीर्यरक्षण से 'प्रकृति, जीव, परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होता है। 'स्थूल, सूक्ष्म, कारण' शरीरों का स्वास्थ्य प्राप्त होता है तथा वह हमें इतना मधुर बनाता है कि इसके सामने दुष्ट अपनी दुष्टता छोड़ देते हैं।
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