अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 7
द॒र्भेण॑ दे॒वजा॑तेन दि॒वि ष्ट॒म्भेन॒ शश्व॒दित्। तेना॒हं शश्व॑तो॒ जनाँ॒ अस॑नं॒ सन॑वानि च ॥
स्वर सहित पद पाठद॒र्भेण॑। दे॒वऽजा॑तेन। दि॒वि। स्त॒म्भेन॑। शश्व॑त्। इत्। तेन॑। अ॒हम्। शश्व॑तः। जना॑न्। अस॑नम्। सन॑वानि। च॒ ॥३२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
दर्भेण देवजातेन दिवि ष्टम्भेन शश्वदित्। तेनाहं शश्वतो जनाँ असनं सनवानि च ॥
स्वर रहित पद पाठदर्भेण। देवऽजातेन। दिवि। स्तम्भेन। शश्वत्। इत्। तेन। अहम्। शश्वतः। जनान्। असनम्। सनवानि। च ॥३२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 7
विषय - 'दिविष्टम्भ' दर्भमणि
पदार्थ -
१. (देवजातेन) = उस महान् देव प्रभु से उत्पन्न किये गये-प्रभु ने ही तो शरीर में रस-रुधिर आदि के क्रम से इसके उत्पादन की व्यवस्था की है (दिवि ष्टम्भेन) = प्राणायाम द्वारा जिस वीर्य की ऊर्ध्वगति करके मस्तिष्करूप द्युलोक में स्थिरता हुई है (तेन) = उस दिविष्टम्भ [स्तम्भ] वीर्य से (शश्वत् इत्) = सदा ही निश्चय से (अहम्) = मैं (शश्वत:) = प्लुतगतिवाले [शश् प्लुतगती] (जनान्) = लोगों को (असनम्) = प्राप्त करता आया हूँ सनवानि च और भविष्य में भी ऐसे ही लोगों को प्राप्त करूँ। २. जब एक घर में पति-पत्नी प्रभु-स्मरणपूर्वक प्राणायामादि साधनों से शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं तब उनके घरों में सदा स्फूर्तिमय जीवनवाले सन्तानों की उत्पत्ति होती
भावार्थ - हम वीर्य को प्रभु-प्रदत्त सर्वोत्तम बस्तु जानें। प्राणायाम द्वारा शरीर में इसकी ऊर्ध्वगति करें। यह हमें स्फूर्तिमय जीवनवाले सन्तानों को प्राप्त कराएगा।
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