Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 32

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 5
    सूक्त - भृगुः देवता - दर्भः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दर्भ सूक्त

    त्वम॑सि॒ सह॑मानो॒ऽहम॑स्मि॒ सह॑स्वान्। उ॒भौ सह॑स्वन्तौ भू॒त्वा स॒पत्ना॑न्सहिषीमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। अ॒सि॒। सह॑मानः। अ॒हम्। अ॒स्मि॒। सह॑स्वान्। उ॒भौ। सह॑स्वन्तौ। भू॒त्वा। स॒ऽपत्ना॑न्। स॒हि॒षी॒म॒हि॒ ॥३२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमसि सहमानोऽहमस्मि सहस्वान्। उभौ सहस्वन्तौ भूत्वा सपत्नान्सहिषीमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। असि। सहमानः। अहम्। अस्मि। सहस्वान्। उभौ। सहस्वन्तौ। भूत्वा। सऽपत्नान्। सहिषीमहि ॥३२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. हे शतकाण्ड [शत्रुओं के संहार के लिए सैकड़ों शरोंवाले] वीर्य! (त्वम्) = तु (सहमानः असि) = रोगरूप शत्रुओं का मर्पण करनेवाला है। (अहम्) = मैं भी (सहस्वान् अस्मि) = वासनारूप शत्रु मर्षण की वृत्तिवाला हूँ। २. इसप्रकार (उभौ) = हम दोनों (सहस्वन्तौ) = शत्रुओं को कुचलनेवाले (भूत्वा) = होकर (सपत्नान) = इन रोग व वासनारूप शत्रुओं को (सहिषीमहि) = कुचल डालें।

    भावार्थ - हम वासनारूप शत्रुओं को कुचलने की वृत्तिवाले बनें। सुरक्षित वीर्य भी शतकाण्ड है-यह रोगों का संहार करता है, अतः मैं वीर्यरक्षण करता हुआ शत्रुओं का पराभव करनेवाला बनें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top