अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 6
सह॑स्व नो अ॒भिमा॑तिं॒ सह॑स्व पृतनाय॒तः। सह॑स्व॒ सर्वा॑न्दु॒र्हार्दः॑ सु॒हार्दो॑ मे ब॒हून्कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठसह॑स्व। नः॒। अ॒भिऽमा॑तिम्। सह॑स्व। पृ॒त॒ना॒ऽय॒तः। सह॑स्व। सर्वा॑न्। दुः॒ऽहार्दः॑। सु॒ऽहार्दः॑। मे॒। ब॒हून्। कृ॒धि॒ ॥३२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्व नो अभिमातिं सहस्व पृतनायतः। सहस्व सर्वान्दुर्हार्दः सुहार्दो मे बहून्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्व। नः। अभिऽमातिम्। सहस्व। पृतनाऽयतः। सहस्व। सर्वान्। दुःऽहार्दः। सुऽहार्दः। मे। बहून्। कृधि ॥३२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 6
विषय - अभिमाति-सहन
पदार्थ -
१. हे शतकाण्ड! तू (न:) = हमारे (अभिमातिम्) = [पाप्मा वै अभिमाति: तै०२.१.३.५] पापभावों को (सहस्व) = पराभूत कर। (पृतनायत:) = उपद्व-सैन्य से हमपर आक्रमण करनेवाले रोगों को (सहस्व) = पराभूत कर। २. (सर्वान) = सब (दुर्हार्दः) = दुष्ट हृदयवालों को (सहस्व) = पराभूत कर तथा (मे) = मेरे (बहून्) = बहुत-से व्यक्तियों को (सुहार्दः) = शुभ हृदयवाला (कृधि) = कर। हमारे घर व समाज के सभी व्यक्ति शुभ हृदयवाले हों।
भावार्थ - वीर्यरक्षण द्वारा हम पापों, रोगों व दुष्ट-हृदयता को दूर करें।
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