Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 21

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
    सूक्त - सव्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२१

    दु॒रो अश्व॑स्य दु॒र इ॑न्द्र॒ गोर॑सि दु॒रो यव॑स्य॒ वसु॑न इ॒नस्पतिः॑। शि॑क्षान॒रः प्र॒दिवो॒ अका॑मकर्शनः॒ सखा॒ सखि॑भ्य॒स्तमि॒दं गृ॑णीमसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दू॒र: । अश्व॑स्य । दू॒र: । इ॒न्द्र॒ । गो: । अ॒सि॒ । दु॒र: । यव॑स्य । वसु॑न: । इ॒न: । पति॑: ॥ शि॒क्षा॒ऽन॒र: । प्र॒ऽदिव॑: । अका॑मकर्शन: । सखा॑ । सखि॑ऽभ्य: । तम् । इ॒दम् । गृ॒णी॒म॒सि॒ ॥२१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुरो अश्वस्य दुर इन्द्र गोरसि दुरो यवस्य वसुन इनस्पतिः। शिक्षानरः प्रदिवो अकामकर्शनः सखा सखिभ्यस्तमिदं गृणीमसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दूर: । अश्वस्य । दूर: । इन्द्र । गो: । असि । दुर: । यवस्य । वसुन: । इन: । पति: ॥ शिक्षाऽनर: । प्रऽदिव: । अकामकर्शन: । सखा । सखिऽभ्य: । तम् । इदम् । गृणीमसि ॥२१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे प्रभो! आप (अश्वस्य) = 'अश्नुवते कर्मसु' यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में व्यास होनेवाली कर्मेन्द्रियों के (दुरः) = दाता [दा+उरच्] (अस्ति) = हैं। हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (गो:) = 'गमयन्ति अर्थान्' अर्थों की प्रज्ञापक ज्ञानेन्द्रियों के आप (दुर:) = दाता हैं। इन इन्द्रियों की उत्तमता के लिए (यवस्य) = जौरूप सात्त्विक अन्न के आप (दुरः) = दाता हैं। सब (वसुन:) = धनों के आप ही (इन:) = स्वामी व (पति:) = रक्षक हैं। २. (शिक्षानरः) = [शिक्षति:-दानकर्मा] दान के आप नेता [न नये] हैं। धन देकर हमें दान की प्रेरणा देते हैं। (प्रदिवः) = आप प्रकृष्ट ज्ञान के प्रकाशवाले हैं। इस ज्ञान को देकर (अकामकर्शन:) = हमें काम का शिकार नहीं होने देते। इसप्रकार (सखिभ्यः सखा) = सखाओं के सच्चे सखा हैं। (तम्) = उन आपके प्रति (इदम्) = इस स्तोत्र का (गृणीमसि) = उच्चारण करते हैं।

    भावार्थ - प्रभु उत्तम कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों, यव आदि सात्त्विक भोजनों व वसुओं के देनेवाले हैं। हम धनों को प्राप्त करके दान देनेवाले बनें। वे प्रकृष्ट ज्ञानी प्रभु हमें काम का शिकार होने से बचाते हैं। उस सच्चे सखा प्रभु का हम स्तवन करते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top