अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 21/ मन्त्र 6
ते त्वा॒ मदा॑ अमद॒न्तानि॒ वृष्ण्या॑ ते॒ सोमा॑सो वृत्र॒हत्ये॑षु सत्पते। यत्का॒रवे॒ दश॑ वृ॒त्राण्य॑प्र॒ति ब॒र्हिष्म॑ते॒ नि स॒हस्रा॑णि ब॒र्हयः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठते । त्वा॒ । मदा॑: । अ॒म॒द॒न् । तानि॑ । वृष्ण्या॑ । ते । सोमा॑स: । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑षु । स॒त्ऽप॒ते॒ ॥ यत् ।का॒रवे॑ । दश॑ । वृ॒त्राणि॑ । अ॒प्र॒ति । ब॒र्हिष्म॑ते । नि । स॒हस्रा॑णि । ब॒र्हय॑: ॥२१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
ते त्वा मदा अमदन्तानि वृष्ण्या ते सोमासो वृत्रहत्येषु सत्पते। यत्कारवे दश वृत्राण्यप्रति बर्हिष्मते नि सहस्राणि बर्हयः ॥
स्वर रहित पद पाठते । त्वा । मदा: । अमदन् । तानि । वृष्ण्या । ते । सोमास: । वृत्रऽहत्येषु । सत्ऽपते ॥ यत् ।कारवे । दश । वृत्राणि । अप्रति । बर्हिष्मते । नि । सहस्राणि । बर्हय: ॥२१.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 6
विषय - प्राणायाम स्तोत्र+सोम-रक्षण
पदार्थ -
१. हे (सत्पते) = हे सज्जनों के रक्षक प्रभो! (वृत्रहत्येषु) = ज्ञान को आवरणभूत वासनाओं के विनाशकारी संग्रामों में (मदा:) = मद [उल्लास] के जनक मरुतों [प्राणों] ने (अमदन) = आनन्दित किया है। उपासक प्राणसाधना द्वारा प्रभु का प्रिय बनता है। (तानि वृष्ण्या) = उन स्तोत्रों ने तुझे आनन्दित किया है जो स्तोता के लिए सुखों के वर्षक होते हैं। (ते सोमास:) = शरीर में सुरक्षित उन सोमकणों ने तुझे आनन्दित किया है। यह सोमकणों का रक्षण हमें प्रभु का प्रिय बनाता है। प्रभु-प्रीति-प्राप्ति के तीन साधन हैं[क] प्राणायाम [ख] स्तोत्र [ग] सोम-रक्षण। २. इसप्रकार (यत्) = जब आप प्रसन्न होते हैं तब (कारवे) = स्तोता के लिए (बहिष्मते) = यज्ञादि पवित्र कर्मों को करनेवाले के लिए (दश सहस्त्राणि) = दशों हज़ार (वृत्राणि) = ज्ञान की आवरक वासनाओं को (अप्रति निबर्हयः) = आप ऐसे विनष्ट करते हैं जिससे कि उनका फिर लौटना होता ही नहीं। प्रसन्न प्रभु हमारी सब शत्रुभूत वासनाओं को विनष्ट कर डालते हैं।
भावार्थ - प्राणायाम+स्तवन व सोम-रक्षण द्वारा हम प्रभु के प्रीतिपात्र बनें । प्रभु हमारी सब वासनाओं को विनष्ट कर डालेंगे।
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