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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 21/ मन्त्र 7
    सूक्त - सव्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२१

    यु॒धा युध॒मुप॒ घेदे॑षि धृष्णु॒या पु॒रा पुरं॒ समि॒दं हं॒स्योज॑सा। नम्या॒ यदि॑न्द्र॒ सख्या॑ परा॒वति॑ निब॒र्हयो॒ नमु॑चिं॒ नाम॑ मा॒यिन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒धा । युध॑म् । उप॑ । घ॒ । इत् । ए॒षि॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । पु॒रा । पुर॑म् । सम् । इ॒दम् । हं॒सि॒ । ओज॑सा ॥ नम्या॑ । यत् । इ॒न्द्र॒ । सख्या॑ । प॒रा॒ऽवति॑ । नि॒ऽब॒र्हय॑: । नमु॑चिम् । नाम॑ । मा॒यिन॑म् ॥२१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युधा युधमुप घेदेषि धृष्णुया पुरा पुरं समिदं हंस्योजसा। नम्या यदिन्द्र सख्या परावति निबर्हयो नमुचिं नाम मायिनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युधा । युधम् । उप । घ । इत् । एषि । धृष्णुऽया । पुरा । पुरम् । सम् । इदम् । हंसि । ओजसा ॥ नम्या । यत् । इन्द्र । सख्या । पराऽवति । निऽबर्हय: । नमुचिम् । नाम । मायिनम् ॥२१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! आप (धृष्णुया) = शत्रुओं के धर्षक (युधा) = आयुध के द्वारा (युधम्) = शत्रु के आयुध को (उप घा इत् एषि) = निश्चय से समीपता से प्राप्त होते हैं। धर्षक आयुधों के द्वारा शत्रु के आयुध को विनष्ट कर डालते हैं। (पुरा) = हमारे पालन व पूरण के दृष्टिकोण से [पृ पालनपूरणयोः] (इदं पुरम्) = इस शत्रु की नगरी को (ओजसा) = ओज के हारा (सं हंसि) = सम्यक नष्ट कर डालते हैं। 'काम' ने इन्द्रियों में, क्रोध ने मन में तथा लोभ ने बुद्धि में जो किले बना लिये थे, उन्हें आप नष्ट कर डालते हैं और इसप्रकार हमारा पालन करते हैं। २. हे इन्द्र! (यत्) = जब आप (नम्या) = सबको प्रहीभूत करनेवाली-झुका देनेवाली (सख्या) = सखिभूत शक्ति से (नमुचिं नाम मायिनम्) = इस नमुचि नामक आसुरभाव को (परावति) = सुदूर देश में (निबर्हयः) = विनष्ट कर डालते हैं। अहंकार की वासना नमुचि है-पीछा न छोड़नेवाली है [न+मच]। सब आसुरभावों को जीत लेने पर भी यह इस रूप में प्रकट होती है कि 'मैंने कितनी महान विजय कर ली'। प्रभु-स्मरण ही इसका विनाश करता है।

    भावार्थ - प्रभु हमारे सब आसुरभावों का विनाश करते हैं।

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