अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 21/ मन्त्र 9
त्वमे॒तां ज॑न॒राज्ञो॒ द्विर्दशा॑ब॒न्धुना॑ सु॒श्रव॑सोपज॒ग्मुषः॑। ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नव॒तिं नव॑ श्रु॒तो नि च॒क्रेण॒ रथ्या॑ दु॒ष्पदा॑वृणक् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ए॒तान् । ज॒न॒ऽराज्ञ॑: । द्वि: । दश॑ । अ॒ब॒न्धुना॑ । सु॒अव॑सा । उ॒प॒अज॒ग्मुष॑: ॥ ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । न॒व॒तिम् । नव॑ । श्रु॒त: । नि । च॒क्रेण॑ । रथ्या॑ । दु॒:ऽपदा॑ । अ॒वृ॒ण॒क् ॥२१.९॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमेतां जनराज्ञो द्विर्दशाबन्धुना सुश्रवसोपजग्मुषः। षष्टिं सहस्रा नवतिं नव श्रुतो नि चक्रेण रथ्या दुष्पदावृणक् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । एतान् । जनऽराज्ञ: । द्वि: । दश । अबन्धुना । सुअवसा । उपअजग्मुष: ॥ षष्टिम् । सहस्रा । नवतिम् । नव । श्रुत: । नि । चक्रेण । रथ्या । दु:ऽपदा । अवृणक् ॥२१.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 9
विषय - वासना-सरित्-संतरण
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (त्वम्) = आप (एतान्) = इन (द्विर्दश) = बीस (जनराज्ञः) = मनुष्यों पर शासन करनेवाली अशुभवृत्तियों को (वि अवृणक्) = निश्चित रूप से दूर करते हैं। ये अशुभवृत्तियाँ बीस हैं-'दस इन्द्रियों, पाँच प्राणों व मन, बुद्धि, चित्त अहंकार व हृदय' इन बीस से इनका सम्बन्ध है। ये अशुभ वृत्तियाँ बीस होती हुई भी सैकड़ों रूपों में अभिव्यक्त होती हैं, अत: यहाँ उन्हें (षष्टिं सहस्त्रा) = ६० हज़ार कहा है। (नवतिं नव) = निन्यानवें वर्षपर्यन्त इन्हें दूर करने का प्रयत्न करते रहना है। न जाने कब हम इनके शिकार हो जाएँ। २. ये अशुभवृत्तियाँ (अबन्धुना) = संसार में न बन्धने वाले (सुश्रवता) = ज्ञान-उपदेशों को सुननेवाले के भी (उपजग्मुषः) = समीप आ जाती हैं। इनका आक्रमण बड़े-बड़े ज्ञानियों पर भी हो जाता है। इनके आक्रमण को श्रुतः सम्पूर्ण ज्ञान के पुज प्रभु ही (दुष्पदा) = बड़ी कठिनता से आक्रमण के योग्य [दुरत्यम्] (रथ्या) = शरीररूप रथ में होनेवाले (चक्रेण) = क्रियाशीलतारूप पहिये से (निवृणक्) = छिन्न करते हैं। प्रभु ही इनके आक्रमण को विफल कर पाते हैं। प्रभु-स्मरणपूर्वक क्रिया में लगे रहना ही एकमात्र उपाय है, जो हमें इन वासनाओं के आक्रमण से बचाता है।
भावार्थ - प्रभु-कृपा से अनन्त प्रवाहों में बहनेवाली वासना-नदी को हम तैर जाएँ।
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