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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 21/ मन्त्र 5
    सूक्त - सव्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२१

    समि॑न्द्र रा॒या समि॒षा र॑भेमहि॒ सं वाजे॑भिः पुरुश्च॒न्द्रैर॒भिद्यु॑भिः। सं दे॒व्या प्रम॑त्या वी॒रशु॑ष्मया गोअग्र॒याश्वा॑वत्या रभेमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । इ॒न्द्र॒ । रा॒या । सम् । इ॒षा । र॒भे॒म॒हि॒ । सम् । वाजे॑भि: । पु॒रु॒ऽच॒न्द्रै: । अ॒भिद्यु॑ऽभि: ॥ सम् । दे॒व्या । प्रऽम॑त्या । वी॒रशु॑ष्मया । गोऽअ॑ग्रया । अश्व॑ऽवत्या । र॒भे॒म॒हि॒ ॥२१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिन्द्र राया समिषा रभेमहि सं वाजेभिः पुरुश्चन्द्रैरभिद्युभिः। सं देव्या प्रमत्या वीरशुष्मया गोअग्रयाश्वावत्या रभेमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । इन्द्र । राया । सम् । इषा । रभेमहि । सम् । वाजेभि: । पुरुऽचन्द्रै: । अभिद्युऽभि: ॥ सम् । देव्या । प्रऽमत्या । वीरशुष्मया । गोऽअग्रया । अश्वऽवत्या । रभेमहि ॥२१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवान् प्रभो! (राया संरभेमहि) = हम आपसे दत्त धन से संगत हों तथा (इषा) = आपसे दी गई प्रेरणा से (सम्) = संगत हों। उस धन का विनियोग आपकी प्रेरणा के अनुसार करें। हे प्रभो! इस प्रकार धनों का सद्व्यय करते हुए (वाजैः सम) = बलों से संगत हों, जो बल (पुरुश्चन्द्रः) = बहुतों के आहादक हों, अर्थात् जिन बलों का विनियोग इस रूप में हो कि वे अधिक-से-अधिक व्यक्तियों का कल्याण करें तथा (अभियुभिः) = अभितः दीप्यमान हों-ज्ञान से युक्त हों। अथवा ये बल चारों ओर यश फैलानेवाले हों। २. इसप्रकार ऐश्वर्य, प्रभु-प्रेरणा व बलों से युक्त होकर हम (देव्या) = उस इन्द्र से सम्बद्ध (प्रमत्या) = प्रकृष्ट बुद्धि से युक्त हों जोकि (वीरशुष्मया) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाले बल से युक्त हो, (गोअग्रया) = प्रकृष्ट ज्ञानेन्द्रियों को अग्रभाग में लिये हुए हो तथा (अश्वावत्या) = प्रकृष्ट कर्मेन्द्रियोंवाली हो।

    भावार्थ - हमें प्रभु के अनुग्रह से ऐश्वर्य, प्रभु-प्रेरणा व बल प्राप्त हो। हम उस प्रमति को प्राप्त करें जो शत्रुओं को कम्पित करके दूर करे तथा उत्तम ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियोंवाली हो।

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