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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 21/ मन्त्र 4
    सूक्त - सव्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२१

    ए॒भिर्द्युभि॑र्सु॒मना॑ ए॒भिरिन्दु॑भिर्निरुन्धा॒नो अम॑तिं॒ गोभि॑र॒श्विना॑। इन्द्रे॑ण॒ दस्युं॑ द॒रय॑न्त॒ इन्दु॑भिर्यु॒तद्वे॑षसः समि॒षा र॑भेमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒भि: । द्युऽभि॑: । सु॒ऽमना॑ । ए॒भि: । इन्दु॑ऽभि: । नि॒ऽरु॒न्धा॒न: । अम॑तिम् । गोभि॑: । अ॒श्विना॑ ॥ इन्द्रे॑ण । दस्यु॑म् । दु॒रय॑न्त: । इन्दु॑ऽभि: । यु॒तऽद्वे॑षस: । सम् । इ॒षा । र॒भे॒म॒हि॒ ॥२१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एभिर्द्युभिर्सुमना एभिरिन्दुभिर्निरुन्धानो अमतिं गोभिरश्विना। इन्द्रेण दस्युं दरयन्त इन्दुभिर्युतद्वेषसः समिषा रभेमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एभि: । द्युऽभि: । सुऽमना । एभि: । इन्दुऽभि: । निऽरुन्धान: । अमतिम् । गोभि: । अश्विना ॥ इन्द्रेण । दस्युम् । दुरयन्त: । इन्दुऽभि: । युतऽद्वेषस: । सम् । इषा । रभेमहि ॥२१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि (एभिः शुभि:) = इन ज्ञान-प्रदीसियों से तू (सुमना) = उत्तम मनवाला हो। (एभिः इन्दुभि:) = इन सुरक्षित सोमकणों के द्वारा, (गोभिः) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा तथा (अश्विना) = प्रशस्त कर्मेन्द्रियरूप धन के द्वारा अथवा प्राणापान के द्वारा, अर्थात् प्राणायाम द्वारा प्राणसाधना से (अ-मतिम्) = दुर्बुद्धि व दारिद्रय का (निरुन्धान:) = निरोध करनेवाला हो। २. जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि (इन्द्रेण) = शत्रुविद्रावक आपके द्वारा (दस्यं दरयन्तः) = दास्यव भावनाओं को विदीर्ण करते हुए, (इन्दुभिः) = सुरक्षित सोमकणों से (युतद्वेषस:) = द्वेषशून्य मनोवाले होते हुए (इषा) = आपकी प्रेरणा के अनुसार हम (संरभेमाहि) = कार्यों से संगत हों। मनुष्य का सुन्दरतम जीवन यही है कि [१] वह ज्ञानज्योतियों को प्राप्त करता हुआ उत्तम मनवाला बने, [२] सोम-रक्षण द्वारा ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को शक्तिशाली बनाता हुआ उत्तम बुद्धिवाला बने, [२] प्रभु-स्मरण द्वारा दास्यव वृत्तियों को दूर करे, [४] सोम-रक्षण से निर्दोष बने, [५] पवित्र हृदय में प्रभु-प्रेरणा को सुनकर तदनुसार कार्यों को करे।

    भावार्थ - ज्ञानज्योति से हमारा मन निर्मल हो। सोम-रक्षण द्वारा सब इन्द्रियों को प्रशस्त बनाते हुए हम दुर्बुद्धि को दूर करें। प्रभु-उपासना द्वारा दास्यव वृत्तियों का विनाश करें। निर्दोष बनकर प्रभु-प्रेरणा के अनुसार कार्यों में प्रवृत्त हो।

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