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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 36/ मन्त्र 3
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३६

    तमी॑मह॒ इन्द्र॑मस्य रा॒यः पु॑रु॒वीर॑स्य नृ॒वतः॑ पुरु॒क्षोः। यो अस्कृ॑धोयुर॒जरः॒ स्वर्वा॒न्तमा भ॑र हरिवो माद॒यध्यै॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ई॒म॒हे॒ । इन्द्र॑म् । अ॒स्य॒ । रा॒य: । पु॒रु॒ऽवीर॑स्य । नृ॒वत॑: । पु॒रु॒ऽक्षो: ॥ य: । अस्कृ॑धोयु: । अ॒जर॑: । स्व॑:ऽवान् । तम् । आ । भ॒र॒ । ह॒रि॒ऽव॒: । मा॒द॒यध्यै॑ ॥३६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमीमह इन्द्रमस्य रायः पुरुवीरस्य नृवतः पुरुक्षोः। यो अस्कृधोयुरजरः स्वर्वान्तमा भर हरिवो मादयध्यै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । ईमहे । इन्द्रम् । अस्य । राय: । पुरुऽवीरस्य । नृवत: । पुरुऽक्षो: ॥ य: । अस्कृधोयु: । अजर: । स्व:ऽवान् । तम् । आ । भर । हरिऽव: । मादयध्यै ॥३६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. (तम् इन्द्रम्) = उस प्रभु से (अस्य राय:) = इस धन की (ईमहे) = याचना करते हैं जोकि (पुरुवीरस्य) = खूब वीर सन्तानोंवाला है, अर्थात् जिसके विनियोग से हम सन्तानों को वीर बना पाते हैं। (नृवत:) = जो प्रशस्त मनुष्योंवाला है-जिसके विनियोग से सब गृहवासियों का जीवन उत्तम बनता है। (पुरुक्षो:) = जो धन पालक व पूरक अन्नवाला है। २. उस धन को माँगते हैं (यः) = जोकि (अस्कृधोयु:) = अनल्प व अविच्छिन्न है। (अजर:) = [अविद्यमाना जरा यस्मात्] हमें वृद्ध नहीं होने देता-जिसके सद्व्यय से हम सदा युवा-से बने रहते हैं। (स्वर्वान्) = जो धन प्रकाश व सुखवाला है। जिसके द्वारा हमारे ज्ञान व सुख की वृद्धि होती है। हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्यों को प्राप्त करानेवाले प्रभो! (तम्) = उस धन को हमें (मादयध्यै) = आनन्दित करने के लिए (आभर) = प्राप्त कराइए।

    भावार्थ - प्रभु हमें वह धन प्रास कराएँ जो हमारे सन्तानों को बौर बनाए, हमें प्रशस्त जीवनवाला बनाए, पालक अन्न को प्राप्त कराए, अविच्छिन्न हो, हमें जीर्ण होने से बचाए तथा प्रकाशमय जीवनवाला करे।

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