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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 36/ मन्त्र 9
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३६

    भुवो॒ जन॑स्य दि॒व्यस्य॒ राजा॒ पार्थि॑वस्य॒ जग॑तस्त्वेषसंदृक्। धि॒ष्व वज्रं॒ दक्षि॑ण इन्द्र॒ हस्ते॒ विश्वा॑ अजुर्य दयसे॒ वि मा॒याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भुव॑: । जन॑स्य । दि॒व्यस्य॑ । राजा॑ । पार्थि॑वस्य । जग॑त: । त्वे॒ष॒ऽसं॒दक् ॥ धि॒ष्व । वज्र॑म् । दक्षि॑णे । इ॒न्द्र॒ । हस्ते॑ । विश्वा॑: । अ॒जु॒र्य॒ । द॒य॒से॒ । वि । मा॒या: ॥३६.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुवो जनस्य दिव्यस्य राजा पार्थिवस्य जगतस्त्वेषसंदृक्। धिष्व वज्रं दक्षिण इन्द्र हस्ते विश्वा अजुर्य दयसे वि मायाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भुव: । जनस्य । दिव्यस्य । राजा । पार्थिवस्य । जगत: । त्वेषऽसंदक् ॥ धिष्व । वज्रम् । दक्षिणे । इन्द्र । हस्ते । विश्वा: । अजुर्य । दयसे । वि । माया: ॥३६.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    १.हे (त्वषेसंदक) = दीप्त संदर्शन-दीप्त प्रकाश के रूप में दिखनेवाले प्रभो! आप (दिव्यस्य जनस्य) = देववृत्ति के प्रकाशमय जीवनवाले लोगों के राजा (भुव:) = जीवनों को दीप्त करनेवाले हैं। इनको ज्ञान का प्रकाश व तेजस्विता आप ही प्राप्त कराते हैं। इसीप्रकार (पार्थिवस्य जगत:) = इस पार्थिव जगत् के भी आप ही राजा है-यहाँ सब ज्योतिर्मय पिण्डों को आप ही ज्योति प्राप्त कराते हैं। तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।'२.हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप (दक्षिणे हस्ते) = दाहिने हाथ में (वज्रं धिष्य) = वज्र को धारण कीजिए। हे अजय-कभी जीर्ण न होनेवाले प्रभो! आप उस धारण किये गये वज्र से (विश्वाः) = सब (माया:) = आसुरी मायाओं को (विदयसे) = विशेषरूप से बाधित करते हैं।

    भावार्थ - सब दिव्यजनों को व सूर्य आदि ज्योतिर्मय पिण्डों को दीसि देनेवाले प्रभु ही हैं। प्रभु ही वज्र के द्वारा आसुरी माया का बाधन करते हैं।

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