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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 36/ मन्त्र 11
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३६

    स नो॑ नि॒युद्भिः॑ पुरुहूत वेधो वि॒श्ववा॑राभि॒रा ग॑हि प्रयज्यो। न या अदे॑वो॒ वर॑ते॒ न दे॒व आभि॑र्याहि॒ तूय॒मा म॑द्र्यद्रिक् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । न: । नि॒युत्ऽभि॑: । पु॒रु॒ऽहू॒त॒: । वे॒ध॒: । वि॒श्वऽवा॑राभि: । आ । ग॒हि॒ । प्र॒य॒ज्यो॒ इति॑ । प्रऽयज्यो ॥ न । या: । अदे॑व: । वर॑ते । न । दे॒व: । आ । आ॒भि॒: । या॒हि॒ । तूय॑म् । आ । म॒द्र्य॒द्रिक् ॥३६.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो नियुद्भिः पुरुहूत वेधो विश्ववाराभिरा गहि प्रयज्यो। न या अदेवो वरते न देव आभिर्याहि तूयमा मद्र्यद्रिक् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । न: । नियुत्ऽभि: । पुरुऽहूत: । वेध: । विश्वऽवाराभि: । आ । गहि । प्रयज्यो इति । प्रऽयज्यो ॥ न । या: । अदेव: । वरते । न । देव: । आ । आभि: । याहि । तूयम् । आ । मद्र्यद्रिक् ॥३६.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    १. हे (पुरुहूत) = बहुतों-से पुकारे जानेवाले (वेधः) = विधात: ! (स:) = वे आप (न:) = हमें (विश्ववाराभि:) = सबसे वरने योग्य (नियुद्धिः) = इन्द्रियाश्वों के साथ (आगहि) = प्राप्त होइए। हमें उन इन्द्रियाश्वों को दीजिए, जिन्हें कि सब चाहें। २. हे (प्रयज्यो) = प्रकर्षेण यष्टव्य [पूज्य] प्रभो! आप हमें उन इन्द्रियाश्वों को दीजिए, (या:) = जिन्हें कि (अदेवः न वरते) = कोई भी आसुरभाव धर्मपथ पर आगे बढ़ने से रोक नहीं पाता और जिन्हें (देव:) = क्रीड़ा, मद व स्वप्न' का भाव भी रोकनेवाला नहीं होता। हे प्रभो! आप (आभि:) = इन इन्द्रियाश्वों से (तूयम्)- श= घ्र ही (मद्यद्रिक्) = अस्मदभिमुख दृष्टिवाले होकर (आयाहि) = आइए।

    भावार्थ - प्रभु हमें इन इन्द्रियाश्वों को प्रास कराएँ जो न तो आसुरभावों से आक्रान्त होते हैं और नहीं 'क्रिड़ा, मद व स्वप्न' के वशीभूत हो जाते हैं। इसप्रकार इन्द्रियाश्वों को पूर्णरूप से वश में करनेवाला व अपने निवास को उत्तम बनानेवाला यह व्यक्ति 'वसिष्ठ' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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