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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 11
    ऋषिः - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३६
    44

    स नो॑ नि॒युद्भिः॑ पुरुहूत वेधो वि॒श्ववा॑राभि॒रा ग॑हि प्रयज्यो। न या अदे॑वो॒ वर॑ते॒ न दे॒व आभि॑र्याहि॒ तूय॒मा म॑द्र्यद्रिक् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । न: । नि॒युत्ऽभि॑: । पु॒रु॒ऽहू॒त॒: । वे॒ध॒: । वि॒श्वऽवा॑राभि: । आ । ग॒हि॒ । प्र॒य॒ज्यो॒ इति॑ । प्रऽयज्यो ॥ न । या: । अदे॑व: । वर॑ते । न । दे॒व: । आ । आ॒भि॒: । या॒हि॒ । तूय॑म् । आ । म॒द्र्य॒द्रिक् ॥३६.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो नियुद्भिः पुरुहूत वेधो विश्ववाराभिरा गहि प्रयज्यो। न या अदेवो वरते न देव आभिर्याहि तूयमा मद्र्यद्रिक् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । न: । नियुत्ऽभि: । पुरुऽहूत: । वेध: । विश्वऽवाराभि: । आ । गहि । प्रयज्यो इति । प्रऽयज्यो ॥ न । या: । अदेव: । वरते । न । देव: । आ । आभि: । याहि । तूयम् । आ । मद्र्यद्रिक् ॥३६.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुरुहूत) हे बहुतों से पुकारे गये ! (वेधः) हे बुद्धिमान् ! (प्रयज्यो) हे अच्छे प्रकार यज्ञ करनेवाले ! (सः) वह तू (नः) हमको (विश्ववाराभिः) सबसे स्वीकार करने योग्य (नियुद्भिः) निश्चित मिलने और बिछुड़ने की रीतों से (आ गहि) प्राप्त हो। (याः) जिन [मिलने बिछुड़ने की रीतों] को (अदेवः) अविद्वान् जन (देवः न) विद्वान् के समान (न) नहीं (आ) अच्छे प्रकार (वरते) मानता है, (आभिः) उन [रीतों] के साथ (मद्र्यद्रिक्) मेरी ओर दृष्टि करता हुआ तू (तूयम्) शीघ्र (आ याहि) आ ॥११॥

    भावार्थ

    राजा उत्तम-उत्तम रीतों को स्वीकार करके विद्वानों से स्वीकार करावे, क्योंकि मूर्ख जन उत्तम बातों को तुरन्त ठीक नहीं समझते ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (नियुद्भिः) यु मिश्रणामिश्रणयोः-क्विप्। निश्चितसंयोगवियोगरीतिभिः (पुरुहूत) हे बहुभिराहूत (वेधः) मेधाविन् ! (विश्ववाराभिः) सर्वैः स्वीकरणीयाभिः (आगहि) प्राप्नुहि (प्रयज्यो) यजिमनिशुन्धि०। उ०३।२०। यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु-युच्। हे प्रकर्षेण यज्ञकर्तः (न) निषेधे (याः) नियुतः (अदेवः) अविद्वान् (वरते) वृञ् वरणे, भ्वादिः। स्वीकरोति (न) यथा (देवः) विद्वान् (आ) समन्तात् (आभिः) नियुद्भिः (याहि) गच्छ (तूयम्) अघ्न्यादयश्च। उ०४।११२। तवतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु०९।२-यक्, छान्दसो दीर्घः। शीघ्रम्-निघ०२।१ (मद्र्यद्रिक्) मद्र्यच्-अथर्व०२०।२३।१+दृशिर् प्रेक्षणे-क्विप्, पृषोदरादिरूपम्। मदभिमुखदृष्टिः सन् ॥

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    विषय

    न अदेवः वरते, न देव:

    पदार्थ

    १. हे (पुरुहूत) = बहुतों-से पुकारे जानेवाले (वेधः) = विधात: ! (स:) = वे आप (न:) = हमें (विश्ववाराभि:) = सबसे वरने योग्य (नियुद्धिः) = इन्द्रियाश्वों के साथ (आगहि) = प्राप्त होइए। हमें उन इन्द्रियाश्वों को दीजिए, जिन्हें कि सब चाहें। २. हे (प्रयज्यो) = प्रकर्षेण यष्टव्य [पूज्य] प्रभो! आप हमें उन इन्द्रियाश्वों को दीजिए, (या:) = जिन्हें कि (अदेवः न वरते) = कोई भी आसुरभाव धर्मपथ पर आगे बढ़ने से रोक नहीं पाता और जिन्हें (देव:) = क्रीड़ा, मद व स्वप्न' का भाव भी रोकनेवाला नहीं होता। हे प्रभो! आप (आभि:) = इन इन्द्रियाश्वों से (तूयम्)- श= घ्र ही (मद्यद्रिक्) = अस्मदभिमुख दृष्टिवाले होकर (आयाहि) = आइए।

    भावार्थ

    प्रभु हमें इन इन्द्रियाश्वों को प्रास कराएँ जो न तो आसुरभावों से आक्रान्त होते हैं और नहीं 'क्रिड़ा, मद व स्वप्न' के वशीभूत हो जाते हैं। इसप्रकार इन्द्रियाश्वों को पूर्णरूप से वश में करनेवाला व अपने निवास को उत्तम बनानेवाला यह व्यक्ति 'वसिष्ठ' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (पुरुहूत) हे बहुतों के द्वारा पुकारे गये! (वेधः) हे पापों को वेधने वाले! (प्रयज्यो) हे उत्तम यज्ञियभावनाओं को चाहने वाले! (सः) वे आप, (विश्ववाराभिः) सब पापों का निवारण करनेवाली (नियुद्भिः) असंख्यात शक्तियों समेत (नः) हमें (आ गहि) प्राप्त हूजिए, (याः) जिन शक्तियों को (न अदेवः) न कोई अदेव, (न देवः) और न कोई देव (वरते) निवारण कर सकता है, (आभिः) इन शक्तियों समेत आप (तूयम्) शीघ्र (मद्र्यद्रिक्) मुझ उपासक की ओर (आ याहि) आइए।

    टिप्पणी

    [मद्र्यद्रिक्—मद् (=अस्मद्)+अद्रि (आगम)+अञ्ज (गतौ)।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति

    भावार्थ

    हे (पुरुहूत) बहुतों से कष्ट दशा में पुकारे जाने योग्य ! सर्वरक्षक ! हे (वेधः) सर्वविधातः ! हे (प्रयज्यो) उत्कृष्ट सर्वोच्च प्रभो ! तू (विश्वचाराभिः) सबसे वरण करने योग्य, सब कष्टों को कारण करने वाली, उन (नियुद्भिः) युद्धकारिणी शत्रु सेनाओं, शक्तियों से (आगहि) हमें प्राप्त हो। (याः) जिनको (अदेवः) अदानशील पुरुष कभी (न वरते) नहीं रख सकता। और (देवो न वरते) केवल इन्द्रियक्रीड़ा का व्यसनी पुरुष भी (न वरते) नहीं रखता। (आभिः) उन सहित तू (तृयम्) शीघ्र ही (मद्रयद्रिक्) मेरी ओर कृपादृष्टि करता हुआ (आ याहि) आजा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    O lord all wise and worshipful, universally adored and invited, come to us by well controlled and well directed modes and means of advancement with those laws and policies of universal interest and value and application, which neither the impious obstruct nor the pious camouflage. Come straight here to us with these without delay.

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    Translation

    O invoked by all. O creator of all, O Excellent Lord, that you, please come to us with that surpassing powers which are acceptable by all and to which neither the man deprived of meritorious qualities may have and nor the man absorved in carnal adventures may possess. O Lord, you having you merciful eyes upon us come to us with them.

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    Translation

    O invoked by all. O creator of all, O Excellent Lord, that you, please come to us with that surpassing powers which are acceptable by all and to which neither the man deprived of meritorious qualities may have and nor the man absorved in carnal adventures may possess. O Lord, you having your merciful eyes upon us come to us with them.

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    Translation

    O much-invoked, highly honoured and wise administrator come to us with well-controlled fighting forces, capable of warding off all the foes as well as all the handicaps. Come swiftly towards me with these forces, whom neither the inglorious nor the glorious can obstruct or ward off

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (नियुद्भिः) यु मिश्रणामिश्रणयोः-क्विप्। निश्चितसंयोगवियोगरीतिभिः (पुरुहूत) हे बहुभिराहूत (वेधः) मेधाविन् ! (विश्ववाराभिः) सर्वैः स्वीकरणीयाभिः (आगहि) प्राप्नुहि (प्रयज्यो) यजिमनिशुन्धि०। उ०३।२०। यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु-युच्। हे प्रकर्षेण यज्ञकर्तः (न) निषेधे (याः) नियुतः (अदेवः) अविद्वान् (वरते) वृञ् वरणे, भ्वादिः। स्वीकरोति (न) यथा (देवः) विद्वान् (आ) समन्तात् (आभिः) नियुद्भिः (याहि) गच्छ (तूयम्) अघ्न्यादयश्च। उ०४।११२। तवतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु०९।२-यक्, छान्दसो दीर्घः। शीघ्रम्-निघ०२।१ (मद्र्यद्रिक्) मद्र्यच्-अथर्व०२०।२३।१+दृशिर् प्रेक्षणे-क्विप्, पृषोदरादिरूपम्। मदभिमुखदृष्टिः सन् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (পুরুহূত) হে অনেকের দ্বারা আহূত ! (বেধঃ) হে বুদ্ধিমান ! (প্রয়জ্যো) হে উত্তমরূপে যজ্ঞকারী ! (সঃ) সেই তুমি (নঃ) আমাদের (বিশ্ববারাভিঃ) সকলের স্বীকারযোগ্য (নিয়ুদ্ভিঃ) নিশ্চিতরূপে সংযোগ ও বিয়োগ রীতির সহিত (আ গহি) প্রাপ্ত হও। (যাঃ) যে [সংযোগ ও বিয়োগ রীতি] (অদেবঃ) অবিদ্বানগণ (দেবঃ ন) বিদ্বানের ন্যায় (ন) না (আ) ভালোভাবে (বরতে) মান্য করে, (আভিঃ) সেই [রীতির] সাথে (মদ্র্যদ্রিক্) আমার প্রতি দৃষ্টিপাত করে তুমি (তূয়ম্) শীঘ্র (আ যাহি) এসো ॥১১॥

    भावार्थ

    রাজা উত্তম-উত্তম রীতি স্বীকার করে বিদ্বানদের দ্বারা স্বীকার করাবে, কারন মূর্খজন উত্তম কথা দ্রুততার সাথে ঠিকমতো বুঝে না ॥১১॥

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    भाषार्थ

    (পুরুহূত) হে অনেকের দ্বারা আহূত/আমন্ত্রিত! (বেধঃ) হে পাপ বিদ্ধকারী! (প্রয়জ্যো) হে উত্তম যজ্ঞিয়ভাবনা কামনাকারী! (সঃ) সেই আপনি, (বিশ্ববারাভিঃ) সকল পাপের নিবারক (নিয়ুদ্ভিঃ) অসংখ্য শক্তি সমেত (নঃ) আমাদের (আ গহি) প্রাপ্ত হন, (যাঃ) যে শক্তি-সমূহকে (ন অদেবঃ) না কোনো অদেব, (ন দেবঃ) এবং না কোনো দেব (বরতে) নিবারণ করতে পারে/সক্ষম, (আভিঃ) এই শক্তি সমেত আপনি (তূয়ম্) শীঘ্র (মদ্র্যদ্রিক্) আমার [উপাসকের] দিকে (আ যাহি) আসুন।

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