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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३६
    134

    आ सं॒यत॑मिन्द्र णः स्व॒स्तिं श॑त्रु॒तूर्या॑य बृह॒तीममृ॑ध्राम्। यया॒ दासा॒न्यार्या॑णि वृ॒त्रा करो॑ वज्रिन्त्सु॒तुका॒ नाहु॑षाणि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । सम्ऽयत॑म् । इ॒न्द्र॒ । न॒: । स्व॒स्तिम् । श॒त्रु॒ऽतूर्या॑य । बृ॒ह॒तीम् । अमृ॑ध्राम् ॥ यया॑ । दासा॑नि । आर्या॑णि । वृ॒त्रा । कर॑: । व॒ज्रि॒न् । सु॒ऽतुका॑ । नाहु॑षाणि ॥३६.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ संयतमिन्द्र णः स्वस्तिं शत्रुतूर्याय बृहतीममृध्राम्। यया दासान्यार्याणि वृत्रा करो वज्रिन्त्सुतुका नाहुषाणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । सम्ऽयतम् । इन्द्र । न: । स्वस्तिम् । शत्रुऽतूर्याय । बृहतीम् । अमृध्राम् ॥ यया । दासानि । आर्याणि । वृत्रा । कर: । वज्रिन् । सुऽतुका । नाहुषाणि ॥३६.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (नः) हमारे लिये (शत्रुतूर्याय) शत्रुओं के मारने को (संयतम्) बहुत दृढ, (बृहतीम्) बढ़ती हुई, (अमृध्राम्) अक्षय (स्वस्तिम्) सुखसामग्री (आ) सब ओर से (करः) तू कर। (यया) जिस [सुखसामग्री] से (वज्रिन्) हे वज्रधारी ! (दासानि) शूद्रों के कुल (आर्याणि) द्विजकुल [होवें] और (नाहुषाणि) मनुष्यों के (वृत्राणि) धन (सुतुका) बहुत बढ़नेवाले [होवें] ॥१०॥

    भावार्थ

    राजा विद्यादान औऱ सत्य उपदेश से शूद्रों को भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बनाकर शत्रुओं के नाश के लिये मनुष्यों में धन और सुख की वृद्धि करें ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(आ) समन्तात् (संयतम्) यम नियमने-क्विप् तुक् च। सम्यग् नियमिताम्। सुदृढाम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (नः) अस्मभ्यम् (स्वस्तिम्) सुसत्ताम्। सुखसामग्रीम् (शत्रुतूर्याय) तूरी गतित्वरणहिंसनयोः-क्यप्। शत्रूणां हिंसनाय (बृहतीम्) महतीम् (अमृध्राम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ०२।१™३। मृधु आर्द्रीभावे हिंसायां च-रक्, टाप्। अहिंसिताम्। अक्षीणाम्। (यया) स्वस्त्या (दासानि) शूद्रकुलानि (आर्याणि) द्विजकुलानि (वृत्राणि) धनानि (करः) कुरु (वज्रिन्) शस्त्रधारिन् (सुतुका) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ०३।४१। तु गतिवृद्धिहिंसासु-कक्। सुवर्धकानि (नाहुषाणि) मनुष्यसम्बन्धीनि ॥

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    विषय

    दास से आर्य

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! आप (न:) = हमारे लिए (शत्रुतूर्याय) = शत्रुओं के विनाश के लिए (बृहतीम) = वृद्धि की कारणभूत (अमृधाम्) = हिंसित न होनेवाली (संयतं स्वस्तिम्) = संयमरूप कल्याणकारिणीवृत्ति को (आकर:) = करनेवाले होइए। संयमवृत्ति को अपनाते हुए हम कल्याण को सिद्ध कर सकें। २. (यया) = जिस संयमवृत्ति से आप (दासानि) = उपक्षीण कर्मवाले लोगों को (आर्याणि) = [ऋ गतौ] नियमित गतिवाला (कर:) = कर देते हैं, उस संयमवृत्ति को हमारे लिए भी कीजिए। हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो। इस संयमवृत्ति के द्वारा ही आप (नाहुषाणि) = मनुष्य-सम्बन्धी मनुष्यों में आ-जानेवाली (वृत्रा) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (सतुका) = पूर्णरूप से हिंसित कर डालते हैं। इन वासनाओं के विनाश से ही तो हमारा कल्याण होता है।

    भावार्थ

    प्रभु हमें कल्याणकारिणी संयमवृत्ति को प्राप्त कराके दास से आर्य बना दें तथा वासना-विनाश द्वारा हमें कल्याणभाक् बनाएँ।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (शत्रुतूर्याय) कामादि शत्रुओं के विनाश के लिए, आप (नः) हमें (संयतम्) इन्द्रिय-संयम तथा (बृहतीं स्वस्तिम्) महाकल्याण का मार्ग (आ करः) प्राप्त कराइए (अमृध्राम्) ऐसा संयम तथा महाकल्याण मार्ग प्राप्त कराइए जिससे कामादि के साथ पुनः संग्राम करना न पड़े। (वज्रिन्) हे न्याय वज्रधारी! ऐसा संयम और स्वस्तिमार्ग प्राप्त कराइए, (यया) जिस द्वारा कि (दासानि) उपक्षयकारी तथा (वृत्रा) उन्नति को रोकनेवाले (नाहुषाणि) मनुष्यों को भी, आप (आर्याणि) आर्य अर्थात् ईश्वरभक्त (करः) कर देते हैं। (सुतुका) और उनकी सन्तानों को भी आप श्रेष्ठ आर्य बना देते हैं।

    टिप्पणी

    [अमृध्राम्=अ+मृध=संग्रामनाम (निघं০ २.१७)। नाहुषाणि=मनुष्यनाम (निघं০ २.३)। आर्यः=ईश्वरपुत्रः (निरु০ ६.५.२६)। तुक्=अपत्यनाम (निघं০ २.२)।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (नः) हमें (शत्रुतूर्याय) शत्रु के नाश के लिये (अमृध्राम्ं) अविनाशी (बृहताम्) बड़ी भारी (संयतम्) सुसंयत, एक साथ मिलकर गमन करने वाली (सु=अस्ति) उत्तम कल्याणकारिणी सम्पत्ति को (आ करः) रच, बना (यया) जिससे, हे (वज्रिन्) शक्तिधर ! तू (दासनि) दूसरों के विनाशकारी, दुष्ट (वृत्रा) विघ्नकारी शत्रु पुरुषों को (आर्याणि करः) आर्य, श्रेष्ठ स्वामिवत् बनाता है और जिससे (सुतुका नाहुषाणि करः) मनुष्य प्रजाओं को उत्तम पुत्र पौत्र सहित, फला फूला बनाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Indra, lord of adamantine will and power, ruler of the world, bring in that wide ranging and inviolable peace and well being in a state of constant vigilance and dynamism to win over enmity and opposition, by which darkness and ignorance can be replaced by light and knowledge and the lower and average orders of society can be raised to higher state of enlightenment and action.

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    Translation

    Almighty God, O master of thunder, you, for destroying our internal enemies make us equipped with that firm flourishing in exhaustible prosperity through which you make the wealth (Vritrani) having no proper use of munificence good and noble and the wealth concerned with men flourishing.

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    Translation

    O Almighty God, O master of thunder, you, for destroying our internal enemies make us equipped with that firm flourishing in exhaustible prosperity through which you make the wealth (Vritrani) having no proper use of munificence good and noble and the wealth concerned with men flourishing.

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    Translation

    O Lord of destruction or fortunes, equipped with lethal weapons, supply us the huge, indestructible, well-controlled gun, capable of hurling big shots to destroy the foes. By such means thou turnest the wicked enemies into noble persons and ordinary people into those of good offspring.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(आ) समन्तात् (संयतम्) यम नियमने-क्विप् तुक् च। सम्यग् नियमिताम्। सुदृढाम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (नः) अस्मभ्यम् (स्वस्तिम्) सुसत्ताम्। सुखसामग्रीम् (शत्रुतूर्याय) तूरी गतित्वरणहिंसनयोः-क्यप्। शत्रूणां हिंसनाय (बृहतीम्) महतीम् (अमृध्राम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ०२।१™३। मृधु आर्द्रीभावे हिंसायां च-रक्, टाप्। अहिंसिताम्। अक्षीणाम्। (यया) स्वस्त्या (दासानि) शूद्रकुलानि (आर्याणि) द्विजकुलानि (वृत्राणि) धनानि (करः) कुरु (वज्रिन्) शस्त्रधारिन् (सुतुका) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ०३।४१। तु गतिवृद्धिहिंसासु-कक्। सुवर्धकानि (नाहुषाणि) मनुष्यसम्बन्धीनि ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান রাজন্] (নঃ) আমাদের জন্য (শত্রুতূর্যায়) শত্রুহননে (সংযতম্) দৃঢ়, (বৃহতীম্) বর্ধিতমান/বর্ধায়মান/বর্ধমান, (অমৃধ্রাম্) অক্ষয় (স্বস্তিম্) সুখসামগ্রী (আ) সকল দিক থেকে (করঃ) তুমি করো। (যয়া) যে [সুখসামগ্রী] দ্বারা (বজ্রিন্) হে বজ্রধারী! (দাসানি) শূদ্রদের কুল (আর্যাণি) দ্বিজকুল [হবে/হয়] এবং (নাহুষাণি) মনুষ্যদের (বৃত্রাণি) ধন (সুতুকা) বহু বৃদ্ধিকারী [হবে/হোক] ॥১০॥

    भावार्थ

    রাজা বিদ্যাদান ও সত্য উপদেশ দ্বারা শূদ্রদের ব্রাহ্মণ, ক্ষত্রিয়, বৈশ্য করে শত্রুদের নাশের জন্য মনুষ্য মধ্যে ধন ও সুখের বৃদ্ধি করে/করুক ॥১০॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (শত্রুতূর্যায়) কামাদি শত্রুর বিনাশের জন্য, আপনি (নঃ) আমাদের (সংযতম্) ইন্দ্রিয়-সংযম তথা (বৃহতীং স্বস্তিম্) মহাকল্যাণের মার্গ (আ করঃ) প্রাপ্ত করান (অমৃধ্রাম্) এমন সংযম তথা মহাকল্যাণ মার্গ প্রাপ্ত করান যাতে কামাদির সাথে পুনঃ সংগ্রাম করতে না হয়। (বজ্রিন্) হে ন্যায় বজ্রধারী! এরূপ সংযম এবং স্বস্তিমার্গ প্রাপ্ত করান, (যয়া) যা দ্বারা (দাসানি) উপক্ষয়কারী তথা (বৃত্রা) উন্নতি রোধকারী (নাহুষাণি) মনুষ্যদেরও, আপনি (আর্যাণি) আর্য অর্থাৎ ঈশ্বরভক্ত (করঃ) করেন। (সুতুকা) এবং তাঁদের সন্তানদেরও আপনি শ্রেষ্ঠ আর্য করেন।

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