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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३६
    47

    तन्नो॒ वि वो॑चो॒ यदि॑ ते पु॒रा चि॑ज्जरि॒तार॑ आन॒शुः सु॒म्नमि॑न्द्र। कस्ते॑ भा॒गः किं वयो॑ दुध्र खिद्वः॒ पुरु॑हूत पुरूवसोऽसुर॒घ्नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । न॒: । वि । वो॒च॒: । यदि॑ । ते॒ । पु॒रा । चि॒त् । ज॒रि॒तार॑: । आ॒न॒शु: । सु॒म्नम् । इ॒न्द्र॒ ॥ क: । ते॒ । भा॒ग: । किम् । वय॑:। दु॒ध्र॒ । खि॒द्व: । पुरु॑ऽहूत । पु॒रु॒व॒सो॒ इति॑ पुरुऽवसो । अ॒सु॒र॒ऽघ्न: ॥३६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्नो वि वोचो यदि ते पुरा चिज्जरितार आनशुः सुम्नमिन्द्र। कस्ते भागः किं वयो दुध्र खिद्वः पुरुहूत पुरूवसोऽसुरघ्नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । न: । वि । वोच: । यदि । ते । पुरा । चित् । जरितार: । आनशु: । सुम्नम् । इन्द्र ॥ क: । ते । भाग: । किम् । वय:। दुध्र । खिद्व: । पुरुऽहूत । पुरुवसो इति पुरुऽवसो । असुरऽघ्न: ॥३६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (तत्) यह बात (नः) हम को (वि) विशेष करके (वोचः) तू बता−(यदि) यदि (ते) तेरे (जरितारः) गुण बखाननेवालों ने (पुरा चित्) पहिले भी (सुम्नम्) सुख को (आनशुः) पाया है। (दुध्र) हे पूर्ण ! (खिद्वः) हे शत्रुओं के खेद देनेवाले ! (पुरुहूत) हे बहुतों से बुलाये गये ! (पुरूवसो) हे बहुत धनवाले (ते) तेरा (कः) कौन सा (असुरघ्नः) असुरों [दुष्टों का] नाश करनेवाला (भागः) भाग है और (किम्) कौन (वयः) जीवन है ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के उपदेशों को ग्रहण करके सदा सुख प्राप्त करें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(तत्) वक्ष्यमाणम् (नः) अस्मान् (वि) विशेषेण (वोचः) लोडर्थे लुङ्। ब्रूहि (यदि) (ते) तव (पुरा) पूर्वम् (चित्) अपि (जरितारः) गुणस्तोतारः (आनशुः) अशू व्याप्तौ-लिट्। प्रापुः (सुम्नम्) सुखम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (कः) (ते) तव (भागः) अंशः (किम्) (वयः) जीवनम् (दुध्र) अ०२०।३४।१८। हे पूर्ण (खिद्वः) खिद दैन्ये, अन्तर्गतण्यर्थः-क्वसु। वस्वेकाजाद्घसाम्। पा०७।२।६७। इडभावः। द्विर्वचनप्रकरणे छन्दसि वेति वक्तव्यम्। वा० पा०६।१।८। इत्यनभ्यासः। मतुवसो रु सम्बुद्धौ छन्दसि। पा०८।३।१। इति रुत्वम्। आमन्त्रितनिघातः। हे शत्रूणां खेदयितः (पुरुहूत) हे बहुभिराहूत (पुरुवसो) हे बहुधन (असुरघ्नः) कप्रकरणे मूलविभुजादिभ्य उपसंख्यानम्। वा० पा०३।२।। असुर+हन हिंसागत्योः-कप्रत्ययः। दुष्टानां हन्ता नाशकः ॥

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    विषय

    कः भागः, किं वयः?

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (पुराचित्) = पहले भी (यदि) = यदि (जरितार:) = स्तोता लोग (ते) = आपसे (सुम्नम् आनशुः) = सुख को प्राप्त हुए हैं, (तत्) = तो (न:) = हमारे लिए भी (विवोच:) = उन स्तोत्रों का प्रतिपादन कीजिए जिससे हम भी आपका स्तवन करते हुए सुख के भागी हों। प्रभु स्तवन सदा सुख का साधन बनता है। इसे अपनाकर हम भी सुखी हों। २. हे (दुध्र) = शत्रुओं से न धारण करने योग्य बलवाले (खिद्व:) = शत्रुओं को खदेड़नेवाले! (पुरुहूत) = बहुतों-से पुकारे गये (पुरूवसो) = पालक व पूरक वसुओंवाले प्रभो! (असुरनः ते) = असुरों का विनाश करनेवाले आपका (कः भाग:) = कौन-सा भजनीय स्तोत्र है? किस स्तोत्र द्वारा हम आपको प्रीणित कर सकते हैं? (किं वयः) = कौन-सा हविलक्षण अन्न है जिसके द्वारा हम आपके प्रिय बनेंगे? वस्तुतः स्तवन व यज्ञ करते हुए ही हम आपकी प्रीति के पात्र बन सकेंगे।

    भावार्थ

    प्रभु का स्तोता अवश्य सुखी होता है। प्रभु-स्तोता के आसुरभावरूप शत्रुओं को खदेड़कर तथा उसे पालक व पूरक धन प्राप्त कराके सुखी करते हैं। स्तोत्रों व यज्ञों से हम प्रभु के प्रिय बनें।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रः) हे परमेश्वर! (ते) आपके (जरितारः) स्तोता (यदि) यदि (पुरा) पुराकाल से, अनादिकाल से (सुम्नम्) सुख को (आनशुः) प्राप्त होते रहे हैं, (तत्) तो उस सुख के सम्बन्ध में (नः) हमें भी (विवोचः) विशेषरूप में कथन कीजिए। (दुध्र) हे दुर्धर! (खिद्वः) हे दीन-दयालो! (पुरुहूत) हे बहुतों द्वारा पुकारे गये! (पुरूवसो) हे महाधनी! (असुरघ्नः) आप आसुर-प्रवृत्तियों का हनन करने वाले हैं; कहिये कि (कः ते भागः) कौनसा धन आपका भाग है?, (किं वयः) और आपका अन्न क्या है?।

    टिप्पणी

    [खिद्वः खिन्नः=खिद् दैन्ये+क्त, यथा पक्वः। भाग=आपका भाग है, “भक्त का आत्मसमर्पण”। वयः=अन्नम् (निघं০ २.७), आपका अन्न है “भक्तिरस”। असुरध्नः=अथवा असुरघ्नः ते; असुर घातिनः ते।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! हे (पुरुहूत) बहुतसी प्रजाओं से रक्षकरूप में बुलाये जाने, नित्य स्मरण करने योग्य ! हे (पुरुवसो) बहुत ऐश्चर्यों से युक्त ! एवं बहुत से लोकों में बसने और बहुतों को बसाने में समर्थ ! हे (खिद्वः) शत्रुओं के खेदजनक या समस्त दुःखों के विनाशक या सबको दीन विनीत करनेहारे ! हे (दुध्र) दुर्धर ! अजेय ! (यदि) जिस प्रकार से (पुराचित्) पहले भी (जरितारः) तेरे स्तुतिकर्ता विद्वान् पुरुष (ते सुम्नम्) तेरे सुखकारी ऐश्वर्य को (आनशुः) प्राप्त करते थे (नः) हमें (इत् वि वोचः) उसका विशेष रूप से उपदेश कर। (असुरघ्नः) असुरों के विनाश करने वाले (ते) तेरा (कः भागः) कौनसा भाग है ? और (किं वयः) तेरा उपादेय अन्न या बल क्या है ?

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Indra, speak to us how the ancient celebrants of yours were blest with the gift of peace and joy. Say what is your share and contribution therein, what joy and ecstasy of being, O lord irresistible, forceful, universally invoked, commanding immense riches, destroyer of evil and the wicked.

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    Translation

    O Almighty God, you are praised by all, strong, subduing one, possessor of plentiful wealth and dispeller of bed ivilment. You please, declar us if your devotees in previous time have attained your happiness, what is your inherent power (Bhaga) and what is vital role.

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    Translation

    O Almighty God, you are praised by all, strong, subduing one, possessor of plentiful wealth and dispeller of bed ivilment. You please, declare us if your devotees in previous time have attained your happiness, what is your inherent power (Bhaga) and what is vital role.

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    Translation

    O Unconquerable and much-invoked Subduer of the enemies and Destroyer of evils, Lord of all fortunes and Settlers of many and Slayer of Demons, tell us the same blissful fortune, which the previous worshippers of Thine got from Thee and also what Thy share and portion is.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(तत्) वक्ष्यमाणम् (नः) अस्मान् (वि) विशेषेण (वोचः) लोडर्थे लुङ्। ब्रूहि (यदि) (ते) तव (पुरा) पूर्वम् (चित्) अपि (जरितारः) गुणस्तोतारः (आनशुः) अशू व्याप्तौ-लिट्। प्रापुः (सुम्नम्) सुखम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (कः) (ते) तव (भागः) अंशः (किम्) (वयः) जीवनम् (दुध्र) अ०२०।३४।१८। हे पूर्ण (खिद्वः) खिद दैन्ये, अन्तर्गतण्यर्थः-क्वसु। वस्वेकाजाद्घसाम्। पा०७।२।६७। इडभावः। द्विर्वचनप्रकरणे छन्दसि वेति वक्तव्यम्। वा० पा०६।१।८। इत्यनभ्यासः। मतुवसो रु सम्बुद्धौ छन्दसि। पा०८।३।१। इति रुत्वम्। आमन्त्रितनिघातः। हे शत्रूणां खेदयितः (पुरुहूत) हे बहुभिराहूत (पुरुवसो) हे बहुधन (असुरघ्नः) कप्रकरणे मूलविभुजादिभ्य उपसंख्यानम्। वा० पा०३।२।। असुर+हन हिंसागत्योः-कप्रत्ययः। दुष्टानां हन्ता नाशकः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র [বড় ঐশ্বর্যবান পুরুষ] (তৎ) এই কথা (নঃ) আমাদেরকে (বি) বিশেষরূপে (বোচঃ) তুমি বলো− (যদি) যদি (তে) তোমার (জরিতারঃ) গুণ ব্যাখ্যাতা/ব্যাখ্যাকারীগণ (পুরা চিৎ) পূর্বেও (সুম্নম্) সুখ (আনশুঃ) প্রাপ্ত করেছে। (দুধ্র) হে পূর্ণ! (খিদ্বঃ) হে শত্রু ক্ষুণ্ণকারী ! (পুরুহূত) হে অনেকের দ্বারা আহূত ! (পুরূবসো) হে ধনযুক্ত (তে) তোমার (কঃ) কোন (অসুরঘ্নঃ) অসুরদের [দুষ্টদের] বিনাশ করার (ভাগঃ) ভাগ আছে এবং (কিম্) কোন (বয়ঃ) জীবন আছে ॥৪॥

    भावार्थ

    মনুষ্যের উচিত, বিদ্বানদের উপদেশ গ্রহণ করে সদা সুখ প্রাপ্ত করা ॥৪॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) হে পরমেশ্বর! (তে) আপনার (জরিতারঃ) স্তোতা (যদি) যদি (পুরা) পুরাকাল থেকে, অনাদিকাল থেকে (সুম্নম্) সুখ (আনশুঃ) প্রাপ্ত হচ্ছে, (তৎ) তবে সেই সুখের সম্বন্ধে/বিষয়ে (নঃ) আমাদেরও (বিবোচঃ) বিশেষরূপে কথন করুন। (দুধ্র) হে দুর্ধর! (খিদ্বঃ) হে দীন-দয়াল! (পুরুহূত) হে অনেকের দ্বারা আহূত/আমন্ত্রিত! (পুরূবসো) হে মহাধনী! (অসুরঘ্নঃ) আপনি আসুরিক-প্রবৃত্তি-সমূহ হননকারী; বলুন (কঃ তে ভাগঃ) কোন ধন আপনার ভাগ?, (কিং বয়ঃ) এবং আপনার অন্ন কী?।

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