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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३६
    53

    भुवो॒ जन॑स्य दि॒व्यस्य॒ राजा॒ पार्थि॑वस्य॒ जग॑तस्त्वेषसंदृक्। धि॒ष्व वज्रं॒ दक्षि॑ण इन्द्र॒ हस्ते॒ विश्वा॑ अजुर्य दयसे॒ वि मा॒याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भुव॑: । जन॑स्य । दि॒व्यस्य॑ । राजा॑ । पार्थि॑वस्य । जग॑त: । त्वे॒ष॒ऽसं॒दक् ॥ धि॒ष्व । वज्र॑म् । दक्षि॑णे । इ॒न्द्र॒ । हस्ते॑ । विश्वा॑: । अ॒जु॒र्य॒ । द॒य॒से॒ । वि । मा॒या: ॥३६.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुवो जनस्य दिव्यस्य राजा पार्थिवस्य जगतस्त्वेषसंदृक्। धिष्व वज्रं दक्षिण इन्द्र हस्ते विश्वा अजुर्य दयसे वि मायाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भुव: । जनस्य । दिव्यस्य । राजा । पार्थिवस्य । जगत: । त्वेषऽसंदक् ॥ धिष्व । वज्रम् । दक्षिणे । इन्द्र । हस्ते । विश्वा: । अजुर्य । दयसे । वि । माया: ॥३६.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्वेषसंदृक्) हे प्रकाश के दिखानेवाले ! तू (दिव्यस्य) कामनायोग्य (जनस्य) मनुष्य का और (पार्थिवस्य) पृथिवी पर हुए (जगतः) संसार का (राजा) राजा (भुवः) है। (अजुर्य) हे जरारहित [प्रबल] (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (दक्षिणे) दाहिने (हस्ते) हाथ में (वज्रम्) वज्र [हथियार] (धिष्व) धारण कर। और (विश्वाः) समस्त (मायाः) बुद्धियों को (वि) विशेष करके (दयसे) दे ॥९॥

    भावार्थ

    वही मनुष्य राजा होना चाहिये जो शरीर और आत्मा से प्रबल होकर संसार की रक्षा और विद्याओं का प्रचार करे ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(भुवः) छान्दसं रूपम्। भवसि (जनस्य) पुरुषस्य (दिव्यस्य) कमनीयस्य (राजा) (पार्थिवस्य) पृथिव्यां भवस्य (जगतः) संसारस्य (त्वेषसंदृक्) हे प्रकाशस्य सम्यग् दर्शयितः (धिष्व) सुधितवसुधितनेमधितधिष्वधिषीय च। पा०७।४।। दधातेः इत्वम्। धत्स्व। धर (वज्रम्) शस्त्रम् (दक्षिणे) (इन्द्र) (हस्ते) (विश्वाः) सर्वाः (अजुर्य) अ०।१।४। जूरी हिंसावयोहान्योः-यक्। हे जरारहित प्रबल (दयसे) दय दानादिषु। लोडर्थे लट्। देहि (वि) विशेषेण (मायाः) प्रज्ञाः ॥

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    विषय

    "दिव्यस्य जनस्य-पार्थिवस्य-जगतः' राजा

    पदार्थ

    १.हे (त्वषेसंदक) = दीप्त संदर्शन-दीप्त प्रकाश के रूप में दिखनेवाले प्रभो! आप (दिव्यस्य जनस्य) = देववृत्ति के प्रकाशमय जीवनवाले लोगों के राजा (भुव:) = जीवनों को दीप्त करनेवाले हैं। इनको ज्ञान का प्रकाश व तेजस्विता आप ही प्राप्त कराते हैं। इसीप्रकार (पार्थिवस्य जगत:) = इस पार्थिव जगत् के भी आप ही राजा है-यहाँ सब ज्योतिर्मय पिण्डों को आप ही ज्योति प्राप्त कराते हैं। तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।'२.हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप (दक्षिणे हस्ते) = दाहिने हाथ में (वज्रं धिष्य) = वज्र को धारण कीजिए। हे अजय-कभी जीर्ण न होनेवाले प्रभो! आप उस धारण किये गये वज्र से (विश्वाः) = सब (माया:) = आसुरी मायाओं को (विदयसे) = विशेषरूप से बाधित करते हैं।

    भावार्थ

    सब दिव्यजनों को व सूर्य आदि ज्योतिर्मय पिण्डों को दीसि देनेवाले प्रभु ही हैं। प्रभु ही वज्र के द्वारा आसुरी माया का बाधन करते हैं।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर! (त्वेषसंदृक्) ज्योतिर्मय आप, (जनस्य) उत्पन्न प्राणियों के, (दिव्यस्य पार्थिवस्य जगतः) तथा द्युलोक और पृथिवी लोक रूपी जगत् के (राजा भुवः) राजा हुए हैं। (इन्द्र) हे परमेश्वर (वज्रम्) न्यायवज्र का (धिष्व) आप धारण कर रहे हैं, जैसे कि योद्धा (दक्षिणे हस्ते) अपने दाहिने हाथ में वज्र धारण करता है। (अजुर्य) हे अजर अमर अविनाशी! आप (विश्वाः) सब प्रकार के (मायाः) छलकपटरूपी कर्मों का (वि दयसे) विनाश करते हैं, अथवा सब प्रज्ञाओं के दाता है।

    टिप्पणी

    [मायाः=छलकपट, तथा प्रज्ञा (निघं০ ३.९)। दयसे=हिंसा तथा दान।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति

    भावार्थ

    हे (अजुर्य) अविनाशिन् ! नित्य ! परमेश्वर ! तू (दिव्यस्थ जनस्य) ज्ञानयुक्त जन्तुओं या मनुष्यों को और (पार्थिवस्य) पृथिवी पर उत्पन्न (जगत्) जंगम प्राणी संसार का भी (राजा भुवः) राजा है। हे (त्वेषसंदृक्) उज्ज्वल तेजस्वी चक्षु वाले या स्वतः तीक्ष्ण तेजस्विन् ! हे (इन्द्र) इन्द्र ! राजन् ! प्रभो ! तू (दक्षिणे हस्ते) दायें हाथ, क्रियामय गतिप्रद साधन में (वज्रं धिष्व) वज्र, वीर्य को धारण कर। (विश्वाः मायाः) तू समस्त मायाओं, प्रज्ञाओं को (विदयसे) विविध प्रकार से धारण करता है। अथवा (विश्वाः मायाः) समस्त छलों को (विदयसे) विविध प्रकार से नाश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Indra, self-refulgent ruler of earth and the world of light, of humanity and the moving world, ageless lord of light and justice, take the thunderbolt of light and justice in the right hand, destroy the wiles of the wicked and give the light of knowledge to the seekers.

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    Translation

    O Unending Almighty God, you are sharp sighted and you become the master of the man and the world celestial and earthly. O Lord, please give energy (Vajra) in my right hand give all kinds of wisdom to me.

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    Translation

    O Unending Almighty God, you are sharp-sighted and you become the master of the man and the world celestial and earthly. O Lord, please give energy (Vajra) in my right hand, give all kinds of wisdom to me.

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    Translation

    O invulnerable, mighty king of splendid appearance, thou art the king of heavenly folk and of earthly creatures. Grasp the deadly weapon like the thunderbolt in your right hand. Thou crushest all deceitful attempts (to overpower thee).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(भुवः) छान्दसं रूपम्। भवसि (जनस्य) पुरुषस्य (दिव्यस्य) कमनीयस्य (राजा) (पार्थिवस्य) पृथिव्यां भवस्य (जगतः) संसारस्य (त्वेषसंदृक्) हे प्रकाशस्य सम्यग् दर्शयितः (धिष्व) सुधितवसुधितनेमधितधिष्वधिषीय च। पा०७।४।। दधातेः इत्वम्। धत्स्व। धर (वज्रम्) शस्त्रम् (दक्षिणे) (इन्द्र) (हस्ते) (विश्वाः) सर्वाः (अजुर्य) अ०।१।४। जूरी हिंसावयोहान्योः-यक्। हे जरारहित प्रबल (दयसे) दय दानादिषु। लोडर्थे लट्। देहि (वि) विशेषेण (मायाः) प्रज्ञाः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ত্বেষসন্দৃক্) হে প্রকাশ প্রদর্শক! তুমি (দিব্যস্য) কামনাযোগ্য (জনস্য) মনুষ্যের এবং (পার্থিবস্য) পৃথিবীর (জগতঃ) সংসারের (রাজা) রাজা (ভুবঃ) হও ।(অজুর্য) হে জরারহিত [প্রবল] (ইন্দ্র) ইন্দ্র! [পরম ঐশ্বর্যবান রাজন] (দক্ষিণে) দক্ষিন (হস্তে) হাতে (বজ্রম্) বজ্র [অস্ত্র] (ধিষ্ব) ধারণ করো। এবং (বিশ্বাঃ) সমস্ত (মায়াঃ) বুদ্ধি (বি) বিশেষ করে (দয়সে) দান করো॥৯॥

    भावार्थ

    সেই মনুষ্যই রাজা হওয়া উচিত, যে শরীর ও আত্মা দ্বারা প্রবল হয়ে সংসারের রক্ষা ও বিদ্যার প্রচার করে/করবে ॥৯॥

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    भाषार्थ

    হে পরমেশ্বর! (ত্বেষসন্দৃক্) জ্যোতির্ময় আপনি, (জনস্য) উৎপন্ন প্রাণীদের, (দিব্যস্য পার্থিবস্য জগতঃ) তথা দ্যুলোক এবং পৃথিবী লোক রূপী জগতের (রাজা ভুবঃ) রাজা হয়েছেন। (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর (বজ্রম্) ন্যায়বজ্র (ধিষ্ব) আপনি ধারণ করছেন, যেমন যোদ্ধা (দক্ষিণে হস্তে) নিজের ডান হাতে বজ্র ধারণ করে। (অজুর্য) হে অজর অমর অবিনাশী! আপনি (বিশ্বাঃ) সব প্রকারে (মায়াঃ) ছলকপটরূপী কর্ম-সমূহের (বি দয়সে) বিনাশ করেন , অথবা সব প্রজ্ঞা-সমূহের দাতা।

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