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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 36/ मन्त्र 4
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३६

    तन्नो॒ वि वो॑चो॒ यदि॑ ते पु॒रा चि॑ज्जरि॒तार॑ आन॒शुः सु॒म्नमि॑न्द्र। कस्ते॑ भा॒गः किं वयो॑ दुध्र खिद्वः॒ पुरु॑हूत पुरूवसोऽसुर॒घ्नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । न॒: । वि । वो॒च॒: । यदि॑ । ते॒ । पु॒रा । चि॒त् । ज॒रि॒तार॑: । आ॒न॒शु: । सु॒म्नम् । इ॒न्द्र॒ ॥ क: । ते॒ । भा॒ग: । किम् । वय॑:। दु॒ध्र॒ । खि॒द्व: । पुरु॑ऽहूत । पु॒रु॒व॒सो॒ इति॑ पुरुऽवसो । अ॒सु॒र॒ऽघ्न: ॥३६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्नो वि वोचो यदि ते पुरा चिज्जरितार आनशुः सुम्नमिन्द्र। कस्ते भागः किं वयो दुध्र खिद्वः पुरुहूत पुरूवसोऽसुरघ्नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । न: । वि । वोच: । यदि । ते । पुरा । चित् । जरितार: । आनशु: । सुम्नम् । इन्द्र ॥ क: । ते । भाग: । किम् । वय:। दुध्र । खिद्व: । पुरुऽहूत । पुरुवसो इति पुरुऽवसो । असुरऽघ्न: ॥३६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (पुराचित्) = पहले भी (यदि) = यदि (जरितार:) = स्तोता लोग (ते) = आपसे (सुम्नम् आनशुः) = सुख को प्राप्त हुए हैं, (तत्) = तो (न:) = हमारे लिए भी (विवोच:) = उन स्तोत्रों का प्रतिपादन कीजिए जिससे हम भी आपका स्तवन करते हुए सुख के भागी हों। प्रभु स्तवन सदा सुख का साधन बनता है। इसे अपनाकर हम भी सुखी हों। २. हे (दुध्र) = शत्रुओं से न धारण करने योग्य बलवाले (खिद्व:) = शत्रुओं को खदेड़नेवाले! (पुरुहूत) = बहुतों-से पुकारे गये (पुरूवसो) = पालक व पूरक वसुओंवाले प्रभो! (असुरनः ते) = असुरों का विनाश करनेवाले आपका (कः भाग:) = कौन-सा भजनीय स्तोत्र है? किस स्तोत्र द्वारा हम आपको प्रीणित कर सकते हैं? (किं वयः) = कौन-सा हविलक्षण अन्न है जिसके द्वारा हम आपके प्रिय बनेंगे? वस्तुतः स्तवन व यज्ञ करते हुए ही हम आपकी प्रीति के पात्र बन सकेंगे।

    भावार्थ - प्रभु का स्तोता अवश्य सुखी होता है। प्रभु-स्तोता के आसुरभावरूप शत्रुओं को खदेड़कर तथा उसे पालक व पूरक धन प्राप्त कराके सुखी करते हैं। स्तोत्रों व यज्ञों से हम प्रभु के प्रिय बनें।

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