अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
तं पृ॒च्छन्ती॒ वज्र॑हस्तं रथे॒ष्ठामिन्द्रं॒ वेपी॒ वक्व॑री॒ यस्य॒ नू गीः। तु॑विग्रा॒भं तु॑विकू॒र्मिं र॑भो॒दां गा॒तुमिषे॒ नक्ष॑ते॒ तुम्र॒मच्छ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । पृ॒च्छन्ती॑ । वज्र॑ऽहस्तम् । र॒थे॒ऽस्थम् । इन्द्र॑म् । वेपी॑ । वक्व॑री । यस्य॑ । नु । गी: ॥ तु॒वि॒ऽग्रा॒भम् । तु॒वि॒ऽकू॒र्मिम् । र॒भ॒:ऽदाम् । गा॒तुम् । इ॒षे॒ । नक्ष॑ते । तुम्र॑म् । अच्छ॑ ॥३६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
तं पृच्छन्ती वज्रहस्तं रथेष्ठामिन्द्रं वेपी वक्वरी यस्य नू गीः। तुविग्राभं तुविकूर्मिं रभोदां गातुमिषे नक्षते तुम्रमच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । पृच्छन्ती । वज्रऽहस्तम् । रथेऽस्थम् । इन्द्रम् । वेपी । वक्वरी । यस्य । नु । गी: ॥ तुविऽग्राभम् । तुविऽकूर्मिम् । रभ:ऽदाम् । गातुम् । इषे । नक्षते । तुम्रम् । अच्छ ॥३६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 5
विषय - प्रभु की चर्चा व प्रभु की ओर
पदार्थ -
१. (यस्य) = जिस स्तोता की (वेपी) = [वेप-कर्म] यागादि लक्ष्ण कर्मोंवाली-यज्ञशीला (वक्वरी) = प्रभु के गुणों का प्रवचन करनेवाली (गी:) = वाणी (नु) = निश्चय से (तं वजहस्तम्) = उस वन को हाथ में लिये हुए, (रथेष्ठाम्) = हमारे शरीर-रथों में स्थित (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् प्रभु को (पृच्छन्ती) = पूछती हुई होती है, यह स्तोता सदा (गातुम् इषे) = मार्ग को ही चाहता है-सदा सन्मार्ग पर चलने की ही कामना करता है। सदा प्रभु की ही चर्चा करता हुआ यह कुमार्गगामी नहीं होता। २. इसप्रकार सन्मार्ग पर चलता हुआ यह उस प्रभु को ही (अच्छ नक्षते) = आभिमुख्येन प्राप्त होता है जोकि (तुविनाभम्) = महान् ग्राहक हैं-सारे ही ब्रह्माण्ड को अपने अन्दर लिये हुए हैं। (तुविकूर्मिम्) = महान् कर्मोंवाले हैं। (रभोदाम्) = बल के दाता है तथा (तुमम्) = शत्रु के प्रति आक्रमण करनेवाले हैं।
भावार्थ - हम सदा प्रभु की ही चर्चा करें और सन्मार्ग पर चलते हुए प्रभु की ओर ही जाएँ।
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