अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
यस्ति॒ग्मशृ॑ङ्गो वृष॒भो न भी॒म एकः॑ कृ॒ष्टीश्च्या॒वय॑ति॒ प्र विश्वाः॑। यः शश्व॑तो॒ अदा॑शुषो॒ गय॑स्य प्रय॒न्तासि॒ सुष्वि॑तराय॒ वेदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ति॒ग्मऽशृ॑ङ्ग: । वृ॒ष॒भ: । न । भी॒म: । एक॑: । कृ॒ष्टी: । च्य॒वय॑ति । प्र । विश्वा॑: ॥ य: । शश्व॑त: । अदा॑शुष: । गय॑स्य । प्र॒ऽय॒न्ता । अ॒सि॒ । सुस्वि॑ऽतराय । वेद॑: ॥३७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम एकः कृष्टीश्च्यावयति प्र विश्वाः। यः शश्वतो अदाशुषो गयस्य प्रयन्तासि सुष्वितराय वेदः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । तिग्मऽशृङ्ग: । वृषभ: । न । भीम: । एक: । कृष्टी: । च्यवयति । प्र । विश्वा: ॥ य: । शश्वत: । अदाशुष: । गयस्य । प्रऽयन्ता । असि । सुस्विऽतराय । वेद: ॥३७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 1
विषय - तिग्मशृंगो वृषभो न भीमः
पदार्थ -
१. हे इन्द्र! (य:) = जो आप हैं वे (तिग्मशृंग:) = तीक्ष्ण सींगोंवाले (वृषभः न) = बैल के समान (भीमः) = शत्रुओं के लिए भयंकर हैं। (एक:) = आप अकेले ही (विश्वा:कृष्टी:) = सब शत्रुभूत मनुष्यों को (प्रच्यावयति) = स्थानभ्रष्ट करते हैं। प्रभु को हम हृदय में उपासित करते हैं, प्रभु हमारे शत्रुओं को वहाँ से भगा देते हैं-वहाँ काम-क्रोध आदि का स्थान नहीं रहता। २. हे प्रभो! (य:) = जो आप हैं, वे (अदाशुष:) = अदानशील (शश्वत:) = व्यापारादि के लिए प्लुतगतिवाले-व्यापार में खूब निमग्न पुरुष के (गयस्य) = धन के [Welth] प्रयन्ता-[restrain, stop, suppress] निग्रह करनेवाले (असि) = हैं और (सुष्वितराय) = अतिशयेन यज्ञशील पुरुष के लिए (वेदः) = धन को प्रयन्त (असि) = देनेवाले हैं [offer, give]।
भावार्थ - प्रभु हमारे शत्रुओं का विनाश करते हैं। अदानशील पुरुषों के धन का निग्रह करते हैं और यज्ञशील पुरुषों के लिए धन प्राप्त कराते हैं।
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