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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३७

    त्वं धृ॑ष्णो धृष॒ता वी॒तह॑व्यं॒ प्रावो॒ विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑ सु॒दास॑म्। प्र पौरु॑कुत्सिं त्र॒सद॑स्युमावः॒ क्षेत्र॑साता वृत्र॒हत्ये॑षु पू॒रुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । धृ॒ष॒ता । वी॒तऽह॑व्यम् । प्र । आ॒व॒: । विश्वा॑भि: । ऊ॒तिऽभि:॑ । सु॒ऽदास॑म् ॥ प्र । पौरु॑ऽकुत्सिम् । त्र॒सद॑स्युम् । आ॒व॒: । क्षेत्र॑ऽसा॒ता । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑षु । पू॒रुम् ॥३७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं धृष्णो धृषता वीतहव्यं प्रावो विश्वाभिरूतिभिः सुदासम्। प्र पौरुकुत्सिं त्रसदस्युमावः क्षेत्रसाता वृत्रहत्येषु पूरुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । धृष्णो इति । धृषता । वीतऽहव्यम् । प्र । आव: । विश्वाभि: । ऊतिऽभि: । सुऽदासम् ॥ प्र । पौरुऽकुत्सिम् । त्रसदस्युम् । आव: । क्षेत्रऽसाता । वृत्रऽहत्येषु । पूरुम् ॥३७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. हे (धृष्णो) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले प्रभो! आप (धृषता) = शत्रुधर्षक बल को प्राप्त कराके (वीतहव्यम्) = हव्य का भक्षण करनेवाले-यज्ञशेष का सेवन करनेवाले–यज्ञशील पुरुष को (प्राव:) = प्रकर्षेण रक्षित करते हैं। आप (सुदासम्) = वासना का सम्यक् उपक्षय करनेवाले को [दस् उपक्षये] अथवा दानशील पुरुष को [दा] (विश्वाभिः ऊतिभि:) = सब रक्षणों के द्वारा रक्षित करते हैं। २. आप (पौरुकुत्सिम्) = वासनाओं का खूब ही संहार करनेवाले को तथा (त्रसदस्युम्) = जिससे दास्यव वृत्तियाँ भयभीत होकर दूर रहती हैं, उस (त्रसदस्यु) = को (प्र आव:) = प्रकर्षेण रक्षित करते हैं। आप (वृत्रहत्येषु) = संग्रामों में (क्षेत्रसाता) = उत्तम शरीर-क्षेत्र की प्राप्ति के निमित्त (पूरुम्) = अपना पालन व पूरण करनेवाले को रक्षित करते हैं।

    भावार्थ - हम 'वीतहव्य-सुदास-पौरुकुत्सि-त्रसदस्यु-व पूरु' बनें और इसप्रकार प्रभु से रक्षणीय हों।

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