अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 8
प्रि॒यास॒ इत्ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः। नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रियास॑: । इत् । ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒भिष्टौ॑ । नर॑: । म॒दे॒म॒ । श॒र॒णे । सखा॑य: ॥ नि । तु॒र्वश॑म् । नि । याद्व॑म् । शि॒शी॒हि॒ । अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑ । शंस्य॑म् । क॒रि॒ष्यन् ॥३७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रियास इत्ते मघवन्नभिष्टौ नरो मदेम शरणे सखायः। नि तुर्वशं नि याद्वं शिशीह्यतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रियास: । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नर: । मदेम । शरणे । सखाय: ॥ नि । तुर्वशम् । नि । याद्वम् । शिशीहि । अतिथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥३७.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 8
विषय - प्रियासः इत् ते
पदार्थ -
१. हे (मघवन्) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो। (ते अभिष्टौ) = आपके अन्वेषण में प्रार्थना व आराधना में (प्रियासः इत्) = निश्चय से आपके प्रिय होते हुए, (नरः) = उन्नति-पथ पर चलते हुए [ते] (सखायः) = आपके मित्र बनकर (शरणे) = आपकी शरण में (मदेम) = आनन्द का अनुभव करें। २. हे प्रभो। आप (तुर्वशम्) = त्वरा से शत्रुओं को वश में करनेवाले उपासक को (निशिशीहि) = खूब तीक्ष्ण कीजिए-इसे तीक्ष्ण-बुद्धि बनाइए। (याद्वम्) = इस यत्नशील मनुष्य को नि [शिशीहि] तीक्ष्ण कीजिए। इसे काम-क्रोध आदि शत्रुओं के लिए भयंकर बनाइए। (अतिथिग्वाय) = अतिथियों के प्रति उनके सत्कार के लिए जानेवाले इस पुरुष के लिए (शंस्यं करिष्यन्) = आप सदा प्रशंसनीय बातों को ही करनेवाले होते हैं।
भावार्थ - प्रभु की आराधना करते हुए हम प्रभु के प्रिय बनें। प्रभु के प्रिय बनकर प्रभु की शरण में आनन्द का अनुभव करें। शत्रुओं को वश में करनेवाले, यत्नशील व अतिथिसेवी बनें, प्रभु अवश्य हमारा कल्याण करेंगे।
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