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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 10
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३७

    ए॒ते स्तोमा॑ न॒रां नृ॑तम॒ तुभ्य॑मस्म॒द्र्यञ्चो॒ दद॑तो म॒घानि॑। तेषा॑मिन्द्र वृत्र॒हत्ये॑ शि॒वो भूः॒ सखा॑ च॒ शूरो॑ऽवि॒ता च॑ नृ॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ते । स्तोमा॑: । न॒राम् । नृ॒ऽत॒म॒ । तुभ्य॑म् । अ॒स्म॒द्र्य॑ञ्च: । दद॑त: । म॒घानि॑ ॥ तेषा॑म् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑ । शि॒व: । भू: । सखा॑ । च॒ । शूर॑: । अ॒वि॒ता । च॒ । नृ॒णाम् ॥३७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एते स्तोमा नरां नृतम तुभ्यमस्मद्र्यञ्चो ददतो मघानि। तेषामिन्द्र वृत्रहत्ये शिवो भूः सखा च शूरोऽविता च नृणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एते । स्तोमा: । नराम् । नृऽतम । तुभ्यम् । अस्मद्र्यञ्च: । ददत: । मघानि ॥ तेषाम् । इन्द्र । वृत्रऽहत्ये । शिव: । भू: । सखा । च । शूर: । अविता । च । नृणाम् ॥३७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    १. हे (नरां नृतम) = नायकों में सर्वोत्तम नायक प्रभो! (एते स्तोमा:) = ये स्तुतिसमूह (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिए हैं। इन स्तोमों द्वारा हम आपको प्राप्त करते है। (अस्मद्यञ्चो) = हमारे अभिमुख होते हुए ये स्तोम (मघानि ददतः) = ऐश्वयों को देते हुए होते हैं। आपका स्तवन करते हुए हम सब आवश्यक ऐश्वर्यों को प्राप्त करते है। २. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! (वृत्रहत्ये) = संग्राम में (तेषां नृणाम्) = उन उन्नति-पथ पर चलनेवाले मनुष्यों का (शिवः) = कल्याण करनेवाले (भू:) = होइए (च) = और (सखा) = उनके मित्र होते हुए (शूरः) = उनके शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले (च) = और (अविता) = रक्षक होइए।

    भावार्थ - प्रभु-स्तवन करनेवाला सब ऐश्वयों को प्राप्त करता है। प्रभु इनके शत्रुओं को शीर्ण करके इनका कल्याण करते हैं।

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