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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 5
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३७

    तव॑ च्यौ॒त्नानि॑ वज्रहस्त॒ तानि॒ नव॒ यत्पुरो॑ नव॒तिं च॑ स॒द्यः। नि॒वेश॑ने शतत॒मावि॑वेषी॒रहं॑ च वृ॒त्रं नमु॑चिमु॒ताह॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । च्यौ॒त्नानि॑ । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । तानि॑ । नव॑ । यत् । पुर॑: । न॒व॒तिम् । च॒ । स॒द्य: ॥ नि॒ऽवेश॑ने । श॒त॒ऽत॒मा । अ॒वि॒वे॒षी॒: । अह॑न् । च॒ । वृ॒त्रम् । नमु॑चिम् । उ॒त । अ॒ह॒न् ॥३७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव च्यौत्नानि वज्रहस्त तानि नव यत्पुरो नवतिं च सद्यः। निवेशने शततमाविवेषीरहं च वृत्रं नमुचिमुताहन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव । च्यौत्नानि । वज्रऽहस्त । तानि । नव । यत् । पुर: । नवतिम् । च । सद्य: ॥ निऽवेशने । शतऽतमा । अविवेषी: । अहन् । च । वृत्रम् । नमुचिम् । उत । अहन् ॥३७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. है (वज्रहस्त) = वन को हाथ में लिये हुए प्रभो। (तानि) = वे (च्यौत्ननि) = शत्रुओं को च्युत करनेवाले बल (तव) = आपके ही हैं, (यत्) = जब आप नव (नवतिं च) = शत्रुओं की निन्यानवें पुरियों को (सद्यः) = शीघ्र ही (अहन्) = नष्ट कर डालते हैं। २. असुरों की निन्यानवें नगरियों को नष्ट करके निवेशने उत्तम जीवन के निवेशन की निमित्त शततमा सौवीं पुरी में (अविवेषी) = आप व्यास होते हैं (च) = और आप (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (अहन्) = विनष्ट करते ही हैं, (उत) = और (नमुचिम्) = पवित्रात्माओं का भी पीछा न छोड़नेवाली अहंकारवृत्ति को भी (अहन्) = नष्ट करते हैं।

    भावार्थ - प्रभु अपनी प्रबल शक्ति से असुरों की निन्यानवें नगरियों का विध्वंस करके हमें उत्तम निवास के लिए सौवी नगरी को प्राप्त कराते हैं, जिसमें न वृत्र का स्थान हो, न नमुचि का। वस्तुत: यह सौवी देवपुरी काम व अहंकार से शून्य है।

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