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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 89

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 89/ मन्त्र 6
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८९

    यस्मि॑न्व॒यं द॑धि॒मा शंस॒मिन्द्रे॒ यः शि॒श्राय॑ म॒घवा॒ काम॑म॒स्मे। आ॒राच्चि॒त्सन्भ॑यतामस्य॒ शत्रु॒र्न्यस्मै द्यु॒म्ना जन्या॑ नमन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मि॑न् । व॒यम् । द॒धि॒म । शंस॑म् । इन्द्रे॑ । य: । शि॒श्राय॑ । म॒घऽवा॑ । काम॑म् । अ॒स्मै इति॑ ॥ आ॒रात् । चि॒त् । सन् । भ॒य॒ता॒म् । अ॒स्य॒ । शत्रु॑: । नि । अ॒स्मै॒ । द्यु॒म्ना । जन्या॑ । न॒म॒न्ता॒म् ॥८९.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मिन्वयं दधिमा शंसमिन्द्रे यः शिश्राय मघवा काममस्मे। आराच्चित्सन्भयतामस्य शत्रुर्न्यस्मै द्युम्ना जन्या नमन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मिन् । वयम् । दधिम । शंसम् । इन्द्रे । य: । शिश्राय । मघऽवा । कामम् । अस्मै इति ॥ आरात् । चित् । सन् । भयताम् । अस्य । शत्रु: । नि । अस्मै । द्युम्ना । जन्या । नमन्ताम् ॥८९.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (यस्मिन् इन्द्रे) = जिस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (वयम्) = हम (शंसम्) = स्तुति को (दधिम) = धारण करते हैं और (य: मघवा) = जो ऐश्वर्यशाली प्रभु अस्मे हममें (कामम्) = काम को शिश्राय [to use, employ]-हमारी उन्नति के लिए विनियुक्त करते हैं। इस काम के द्वारा ही तो वेदाध्ययन व यज्ञ आदि उत्तम कर्म हुआ करते हैं। (अस्य शत्रु:) = इस पुरुष का नाश करनेवाला काम (आरात् चित् सन्) = दूर भी होता हुआ (भयताम्) = डरता ही रहे। इसके पास फटकने का इसे स्वप्न भी न हो और अब (अस्मै) = इस प्रभु के स्तोता के लिए जन्या मनुष्य का हित साधनेवाले (द्युम्ना) = धन (नमन्ताम्) = निश्चय से प्रहीभूत हों। इसे इन जन्य धनों की प्राप्ति हो। २. जब हम प्रभु का स्तवन करते हैं तब इसका सर्वमहान् लाभ यह होता है कि हमारे जीवनों में काम शत्रु न बनकर मित्र की भाँति कार्य करता है। प्रभु इस 'काम' को हमारी उन्नति के लिए विनियुक्त करते हुए उन धनों को प्राप्त करते हैं जो जनहित के साधक होते हैं।

    भावार्थ - प्रभु के स्तवन से काम हमारा शत्रु न होकर मित्र हो जाता है और हम लोकहित साधक धनों को प्राप्त करनेवाले होते हैं।

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