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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 89

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 89/ मन्त्र 3
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८९

    किम॒ङ्ग त्वा॑ मघवन्भो॒जमा॑हुः शिशी॒हि मा॑ शिश॒यं त्वा॑ शृणोमि। अप्न॑स्वती॒ मम॒ धीर॑स्तु शक्र वसु॒विदं॒ भग॑मि॒न्द्रा भ॑रा नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । अ॒ङ्ग । त्वा॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । भो॒जम् । आ॒हु॒: । शि॒शी॒हि । मा॒ । शि॒श॒यम् । त्वा॒ । शृ॒णो॒मि॒ ॥ अप्न॑स्वती । मम॑ ।धी: । अ॒स्तु॒ । श॒क्र॒ । व॒सु॒ऽविद॑म् । भग॑म् । इ॒न्द्र॒ । आ । भ॒र॒ । न॒: ॥८९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किमङ्ग त्वा मघवन्भोजमाहुः शिशीहि मा शिशयं त्वा शृणोमि। अप्नस्वती मम धीरस्तु शक्र वसुविदं भगमिन्द्रा भरा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम् । अङ्ग । त्वा । मघऽवन् । भोजम् । आहु: । शिशीहि । मा । शिशयम् । त्वा । शृणोमि ॥ अप्नस्वती । मम ।धी: । अस्तु । शक्र । वसुऽविदम् । भगम् । इन्द्र । आ । भर । न: ॥८९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन्। (अङ्ग) = सर्वत्र गतिमय [अगि गतौ] प्रभो! (त्वा) = आपको (किम्) = क्यों (भोजनम्) = सब भोजनों को प्राप्त कराके पालन करनेवाला (आहु:) = कहते हैं। मैं तो भोजनों की प्रार्थना न करके यही चाहता हूँ कि आप (मा) = मुझे (शिशीहि) = तीक्ष्ण बुद्धिवाला कर दें। मैं (त्वा) = आपको (शिशयम्) = बुद्धि को तीन करनेवाले के रूप में (शृणोमि) = सुनता हूँ। २. साथ ही हे (शक्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! आपकी कृपा से मम धी:-मेरी बुद्धि (अप्नस्वती) = कर्मोंवाली (अस्तु) = हो और हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (नः) = हमारे लिए (वसुविदम्) = निवास के लिए आवश्यक सब तत्त्वों को प्रास करानेवाले (भगम) = भजनीय धन को (आभर) = सर्वथा प्रास कराइए। वस्तुत: प्रभु बुद्धि देकर मुझे इस योग्य बना दें कि मैं निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों को जुटाने में समर्थ हो जाऊँ। मैं बुद्धिवाला होऊँ और मेरी बुद्धि कर्म से युक्त हो।

    भावार्थ - मैं भोजन की प्रार्थना न करके क्रियायुक्त बुद्धि की याचना करूँ।'हम प्रभु को 'शिशय' के रूप' स्मरण करें, न कि 'भोज' के रूप में।

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