अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 89/ मन्त्र 4
त्वां जना॑ ममस॒त्येष्वि॑न्द्र सन्तस्था॒ना वि ह्व॑यन्ते समी॒के। अत्रा॒ युजं॑ कृणुते॒ यो ह॒विष्मा॑न्नासुन्वता स॒ख्यं व॑ष्टि॒ शूरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । जना॑: । म॒म॒ऽस॒त्येषु॑ । इ॒न्द्र॒ । स॒म्ऽत॒स्था॒ना: । वि । ह्व॒य॒न्ते॒ । स॒म्ऽई॒के ॥ अत्र॑ । युज॑म् । कृ॒णु॒ते॒ । य: । ह॒विष्मा॑न् । न । असु॑न्वत । स॒ख्यम् । व॒ष्टि॒ । शूर॑: ॥८९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां जना ममसत्येष्विन्द्र सन्तस्थाना वि ह्वयन्ते समीके। अत्रा युजं कृणुते यो हविष्मान्नासुन्वता सख्यं वष्टि शूरः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । जना: । ममऽसत्येषु । इन्द्र । सम्ऽतस्थाना: । वि । ह्वयन्ते । सम्ऽईके ॥ अत्र । युजम् । कृणुते । य: । हविष्मान् । न । असुन्वत । सख्यम् । वष्टि । शूर: ॥८९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 4
विषय - हविष्मान्, न कि असुन्वत्
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो! (समीके) = संग्राम में (सन्तस्थाना:) = सम्यक् स्थित हुए-हुए (जन:) = लोग (मम सत्येषु) = 'मेरा पक्ष सत्य है, मेरा पक्ष सत्य है' इसप्रकार के विचारवाले संग्रामों में (त्वाम्) = आपको (विट्ठयन्ते) = पुकारते हैं। दोनों ही पक्ष अपने को सत्य पर आरूढ़ समझ रहे होते हैं। दोनों में कोई भी अपने को गलती पर नहीं समझता। २. (अत्र) = इसप्रकार के विचारवाले इन संग्रामों के उपस्थित होने पर (य:) = जो (हविष्मान्) = हविवाला होता है-त्यागपूर्वक अदन करनेवाला होता है, वही उस प्रभु को (युजं कृणुते) = अपना साथी बना पाता है। (शूर:) = सब शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभु (असुन्वता) = अयज्ञशील पुरुष के साथ (सख्यम्) = मित्रता को न वष्टि नहीं चाहते हैं। त्याग की वृत्ति ही मनुष्य को असत्य से दूर करती है, प्रभु इस सत्य के पक्षबाले को ही विजयी करते हैं। संग्रामों में विजय उन्हीं की होती है, जो (हविष्मान्) = बनते हैं। जिस जाति में त्याग की भावना नहीं होती, वह पराजित ही होती है।
भावार्थ - हम हविष्मान् बनें, हम तभी प्रभु की मित्रता में विजयी बनेंगे।
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