अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 89/ मन्त्र 5
धनं॒ न स्प॒न्द्रं ब॑हु॒लं यो अ॑स्मै ती॒व्रान्त्सोमाँ॑ आसु॒नोति॒ प्रय॑स्वान्। तस्मै॒ शत्रू॑न्त्सु॒तुका॑न्प्रा॒तरह्नो॒ नि स्वष्ट्रा॑न्यु॒वति॒ हन्ति॑ वृ॒त्रम् ॥
स्वर सहित पद पाठधन॑म् । न । स्प॒न्द्रम् । ब॒हु॒लम् । य: । अ॒स्मै॒ । ती॒व्रान् । सोमा॑न् । आ॒ऽसु॒नोति॑ । प्रय॑स्वान् ॥ तस्मै॑ । शत्रू॑न् । सु॒ऽतुका॑न् । प्रा॒त: । अह्न॑: । नि । सु॒ऽअष्ट्रा॑न् । यु॒वति॑ । हन्ति॑ । वृ॒त्रम् ॥८९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
धनं न स्पन्द्रं बहुलं यो अस्मै तीव्रान्त्सोमाँ आसुनोति प्रयस्वान्। तस्मै शत्रून्त्सुतुकान्प्रातरह्नो नि स्वष्ट्रान्युवति हन्ति वृत्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठधनम् । न । स्पन्द्रम् । बहुलम् । य: । अस्मै । तीव्रान् । सोमान् । आऽसुनोति । प्रयस्वान् ॥ तस्मै । शत्रून् । सुऽतुकान् । प्रात: । अह्न: । नि । सुऽअष्ट्रान् । युवति । हन्ति । वृत्रम् ॥८९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 5
विषय - 'प्रयस्वान्' बनना
पदार्थ -
१. (यः) = जो भी पुरुष (प्रयस्वान्) = [प्रयस्-हवि] (हविष्मान्) = त्याग की वृत्तिवाला बनकर (अस्मै) = इस प्रभु के लिए-इस प्रभु की प्राप्ति के लिए (धनम्) = धन को (स्पन्द्रं न) = जोकि चञ्चल सा है-अस्थिर है तथा (बहुलम्) = जीवन के लिए कृष्णपक्ष के समान है-जीवन को अन्धकारमय बना देता है-उस धन को (आसुनोति) = यज्ञ के लिए विनियुक्त करता है और जो (प्रयस्वान्) = [प्रयस्-food] प्रशस्त भोजनवाला बनकर (तीव्रान्) = शक्तिशाली-रोगकृमियों व मन की मैल का संहार करनेवाले (सोमान्) = सोमकणों को (आसनोति) = अपने शरीर में उत्पन्न करता है, (तस्मै) = उस पुरुष के लिए वे प्रभु (अह्नः प्रात:) = दिन का प्रारम्भ होते ही (शत्रून्) = काम आदि शत्रुओं को (सुतुकान्) = [सुप्रेरणान् सा०] पूरी तरह से भाग जानेवाला करते हैं और (स्वष्ट्रान्) = [उत्तमायुधान् अष्ट्रा-goad] उत्तम शस्त्रोंवाले इन शत्रुओं को (नियुवति) = निश्चय से पृथक् कर देते हैं। इसप्रकार (वत्रं हन्ति) = वे प्रज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट कर डालते हैं। २. [क] त्यागवाले बनकर हम धनों को यज्ञों में विनियुक्त करें। ये धन अस्थिर है-इनमें ममता क्या करनी? ये धन हमारी अवनति का कारण बनते हैं-जीवन में ये कृष्णपक्ष के समान हैं। [ख] उत्तम अन्नों का सेवन करते हुए हम शरीर में सोम का उत्पादन करें, वह हमें नीरोग व निर्मल बनाएगा। [ग] ऐसा होने पर हमारे ये काम आदि शत्र भाग खड़े होंगे। इन शत्रुओं के अस्त्र हमारे लिए कुण्ठित हो जाएंगे-हमारी शत्रुभूत वासनाओं का विनाश हो जाएगा।
भावार्थ - हम धनों को यज्ञों में लगाएँ, सोम [वीर्य] का अपने में उत्पादन करें। यही शत्रु विनाश का मार्ग है।
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