अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 89/ मन्त्र 7
आ॒राच्छत्रु॒मप॑ बाधस्व दू॒रमु॒ग्रो यः शम्बः॑ पुरुहूत॒ तेन॑। अ॒स्मे धे॑हि॒ यव॑म॒द्गोम॑दिन्द्र कृ॒धी धियं॑ जरि॒त्रे वाज॑रत्नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒रात् । शत्रू॑न् । अप॑ । बा॒ध॒स्व॒ । दू॒रम् । उ॒ग्र: । य: । शम्ब॑: । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । तेन॑ ॥ अ॒स्मै इति॑ । धे॒हि॒ । यव॑ऽमत् । गोऽम॑त् । इ॒न्द्र॒ । कृ॒धि । धिय॑म् । ज॒रि॒त्रे । वाज॑ऽरत्नाम् ॥८९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
आराच्छत्रुमप बाधस्व दूरमुग्रो यः शम्बः पुरुहूत तेन। अस्मे धेहि यवमद्गोमदिन्द्र कृधी धियं जरित्रे वाजरत्नाम् ॥
स्वर रहित पद पाठआरात् । शत्रून् । अप । बाधस्व । दूरम् । उग्र: । य: । शम्ब: । पुरुऽहूत । तेन ॥ अस्मै इति । धेहि । यवऽमत् । गोऽमत् । इन्द्र । कृधि । धियम् । जरित्रे । वाजऽरत्नाम् ॥८९.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 7
विषय - रमणीय शक्ति व बुद्धि
पदार्थ -
१. हे (पुरुहूत) = बहुतों-से पुकारे जानेवाले प्रभो ! (यः) = जो आपका (उग्र:) = तीव्र (शम्ब:) = वज्र है, (तेन) = उस शत्रुओं को शान्त [शंब] करनेवाले वन से (आरात् शत्रुम्) = इस समीप आनेवाले शत्रु को (दूरम्) = सुदूर (अपवाधस्व) = विनष्ट करनेवाले होइए। वस्तुतः प्रभु ने हमें यह क्रियाशीलतारूप वन दिया है। इसी से हमने काम आदि शत्रुओं को दूर भगाना है। २. हे प्रभो। (अस्मे) = हमारे लिए आप (यवमत्) = जीवाले व (गोमत्) = गौओंवाले, अर्थात गोदाध से युक्त अन्न को (धेहि) = धारण कीजिए। जौ इत्यादि अन्नों से हममें प्राणशक्ति का वर्धन होगा और गोदुग्ध से हमें सात्त्विक बुद्धि प्राप्त होगी। ३. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (जरित्रे) = स्तोता के लिए (वाजरत्नाम्) = रमणीय शक्तियोंवाली (धियम्) = बुद्धि को (कृधि) = कीजिए। आपका स्तोता जहाँ बुद्धि को प्रास करे, वहाँ उसे रमणीय शक्तियों भी प्राप्त हों। शक्तियों की रमणीयता इसी में है कि वह रक्षा के कार्य में विनियुक्त होती है-ध्वंस के कार्य में नहीं।
भावार्थ - हम क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा वासना को नष्ट करें। जी व गोदुग्ध का प्रयोग करते हुए रमणीय शक्ति व बुद्धि को प्राप्त करें।
इस भाष्य को एडिट करें